‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 109 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 109 वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (२८)

इस तरह मुक्त हो जायेगा, अपने कर्मों के दोषों से,

फल रहे शुभाशुभ कर्मो के, होगा तू पाप मुक्त उनसे ।

धारण कर फिर सन्यास योग, तू युक्तचित्त होकर अवचिल,

कर प्राप्त मुझे, मेरा स्वरुप, भासित होगा तुझमें अविकल ।

 

जिस तरह आग में भुना बीज, फिर नहीं दुबारा अंकुराता,

फल नहीं शुभाशुभ कर्मो का अर्पण कर्ता को लग पाता ।

सुख-दुख का भोग भोगने को, लेना होता है नया जन्म,

अर्पित हो गए कर्म प्रभु को तब कहाँ बचेगा पुर्नजन्म ।

 

हो जाते कर्म पवित्र सभी जब, अनासक्ति का भाव लिए,

कर्ता जिनका प्रभु चरणों में, अर्पित कर अपने कर्म जिए।

यह त्याग पवित्रीकरण रहा, हर कर्म रहा प्रभु की सेवा,

बन्धन से मुक्त जीव रहता, इससे न बड़ा कोई मेवा ।

श्लोक  (२९)

मेरा न किसी से द्वेष रहा, मेरी न किसी से प्रीति रही,

समभाव सभी के साथ रखूँ, सब जीवों पर समदृष्टि रही ।

पर भक्तिभाव पूरित प्राणी, सेवारत ध्यान रखें मेरा,

वे मेरे प्रिय मुझमें बसते, उनमें निवास रहता मेरा ।

 

परमात्मा का समभाव रहे, वह नहीं किसी का करे वरण,

गन्तव्य उन्हीं को मिलता है, रहते हैं जो गतिशील चरण ।

चलना पड़ता हर साधक को, श्रद्धा अरु भक्ति लिए मन में,

परमात्मा को पा जाते वे, जो उसे धारते जीवन में ।

श्लोक  (३०)

आकस्मिक जिसका हुआ पतन, जो अतिशय रहा दुराचारी,

यदि भक्ति-परायण हो जाए, वह बने मुक्ति का अधिकारी ।

इसलिए कि साधुता धारण की, मन भक्ति भाव से युक्त हुआ,

निष्ठा एकांत साधकर वह, मानो मुझसे संयुक्त हुआ ।

 

अर्जुन यदि बड़े दुराचारी का, मन परिवर्तित हो जाए,

बन जाए मेरा भक्त और मेरी पूजा को अपनाए ।

तो उसको समझो साधु रहा जो, निश्चय पर चलने वाला,

माना है जिसने ईश भजन, अघ दोष सभी हरने वाला

 

कैसा भी रहे दुरात्मा पर, मुझसे जो प्रीति लगाता है,

करने लगता मेरी पूजा, दृढ़ भक्ति भाव अपनाता है।

समझो वह रहा महात्मा ही, जो भटक राह पर आया है,

जो सुप्त भाव या ईश्वर के प्रति, उसने उसे जगाया है।

 

संकल्प शक्ति को जाग्रत कर, जो बुरे मार्ग का त्याग करे,

जोड़े परमात्मा से नाता, तब ही पापों का मैल धुले ।

कितना ही गहन अंधेरा हो, पर आश किरण की रहती है,

हो जाती जब उद्दीप्त आग, वह पटल तिमिर का दहती है।

 

ऐसा कोई पाप न होता, जो न क्षमा के योग्य रहा,

क्षार-क्षार हो जाता है, अघ जब मन में अनुताप जगा ।

कर्मों के परिणामों से यद्यपि न रहा कोई बचकर,

लेकिन भक्तों का वितान तो खड़ा साथ प्रभु के जुड़कर ।

श्लोक  (३१)

जिस समय न सूर्य उदित होता, वह समय रात्रि का कहलाता,

हो हीन भक्ति से कार्य अगर, क्या पाप नहीं वह बन जाता ?

संयुक्त चित्त को कर मुझमें, क्या मेरी शक्ति न पा जाए ?

दोनों दीपक दिखते समान, जब एक-एक से जल जाए ।

 

मिल जाती कान्ति शान्ति मेरी, जो सर्वभाव से भजे मुझे,

क्या जाति-पाँति, क्या ऊँच नीच, इनका न रहे कुछ भेद मुझे ।

लेकिन जो भक्ति विहीन रहा, जीता वह पाप बढ़ाने को,

तज जाते उसके पुण्य उसे, संचय उसका दुख पाने को ।

 

झुक जाए नीम निबौरी से, केवल कौओं का वास वहीं,

झुका बह रही निषिद्ध, झाड़ियाँ झरतीं रहतीं शूल जहाँ ।

चाहे जितना हो बड़ा, किन्तु तालाब हुआ सूखा तो क्या?

गोरी कितनी ही रहे बाल, गेहूँ न रहा उसमें तो क्या?

 

अर्जुन यह बात समझ ले तू, वह धर्मात्मा बन जाता है,

चिर शान्ति प्राप्त करता मेरी, जो भक्तिभाव अपनाता है।

देकर सब मेरे हाथों में, निशेष हुआ कर चले भजन,

वह नहीं कूप में फिर पड़ता, करता है वह अमरत्व वरण ।

 

अविलम्ब बने वह धर्मात्मा, पा जाए अमित शान्ति मेरी,

जो धर्म-परायण भक्त उसे, यह परम शान्ति मिलती मेरी ।

निश्चय पूर्वक हे अर्जुन तू, कर दे उदघोष जगत सुन ले,

मरता है मेरा भक्त नहीं, चाहे कोई भी कुछ कर ले। क्रमशः….