नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’
अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’
श्लोक (२५)
जीवन विकास क्रम में मानव ने, सूर्य अग्नि की, की पूजा,
फिर हुई दिवंगत जो आत्मा, मानव ने की उसकी पूजा ।
फिर मनो जगत में विद्यमान, सत्ताओं से आशायें की,
ये सीमित रुप रहे प्रभु के, जिनमें उसकी आशा भटकी ।
देवताओं की पूजन करते वे जन, देवताओं को पाते,
पितरों की पूजन करते जो, अर्जुन वे पितरों को पाते ।
भूतों के रहे पुजारी जो, भूतों के कृपापात्र बनते,
जो मेरा पूजा करते हैं, वे आराधक मुझसे मिलते ।
इन्द्रादि देव को भजते जो, मरकर पाते हैं इन्द्रलोक,
पितरों के पूजक पा जाते, देहावसान पर पितृलोक ।
पा जाते हैं पिशाच योनि, जो भजन पिशाचों का करते,
फल उनके वैसे ही मिलते, जो जैसा कर्मो को करते ।
देखा करती है दृष्टि मुझे, सुनते हैं कान गान मेरा,
मन मेरे में नित रहे लीन, बाचा करती कीर्तन मेरा ।
सर्वांग मुझे, सर्वत्र जान, जो प्रणत भाव से करे नमन,
अर्जुन मन वचन कर्म से वह जो करता मेरा सदा भजन ।
मेरा होकर मुझको पाता, करता मेरा साक्षात्कार,
मेरे सिवाय उसके मन में, रहता न किसी से तनिक प्यार ।
मेरी इच्छा से जो सकाम, जो है सप्रेम मेरे कारण,
बाहर-भीतर मुझको देखे, जो किए मुझे मन में धारण ।
अर्जुन न समर्पित जो मुझको, उसका न रहा फिर छुटकारा,
कुछ भी कर ले, उपचार व्यर्थ, श्रम उसका रहे व्यर्थ सारा ।
तृणमात्र नहीं उपयोग रहे, उसके जप तप व्रत पूजन का,
उसका हर कर्म अहंकारी, अवनति उसकी लेकर चलता ।
वेदों से बढ़कर ज्ञान कहाँ, बाचाल शेष से अधिक कौन?
कहते जो नेति नेति मुझको, यश गाते गाते हुए मौन ।
अभिमान छोड़कर चरणोदक, मेरा लेने बढ़ते महेश,
लक्ष्मीपति भजते हैं मुझको, लेकर अपनी सम्पदा अशेष ।
हो जाता लुप्त चन्द्रमा का, सूरज के आगे तेज सकल,
फिर क्या जुगुनू का गर्व रहा, ठहरे न चमक जिसकी क्षण भर।
श्रीदेवी का ऐश्वर्य जहाँ, शम्भू का तप, न महत्व रखे,
अज्ञानी ही होता अर्जुन, जो उसका वैभव नहीं लखे ।
करके अभिमान विसर्जित सब, सम्पत्ति ज्ञान का गर्व छोड़,
मद वैभव का कर दूर सकल, केवल मुझसे संबंध जोड़ ।
अर्जुन न मुझे वे लख पाते, जिनके दृग पर पर्दा रहता,
जिसकी पैंदी फूटी होती, उस गागर का पानी बहता ।
मेरी उपासना जो सकाम करते वे भी पाते मुझको,
निष्काम भाव का पूजक पर सर्वाधिक प्रिय होता मुझको ।
जो देववृता, जो पितृव्रता, जो भूतव्रता, गुण के प्रतीक,
जो गुणातीत हो भक्ति करें, अर्जुन वे होते हैं अलीक ।
मिलते हैं उन्हें देवतागण, जो करें उपासना देवों की,
होते हैं प्राप्त पितर उनको, जो करें उपासना पितरों की ।
भूतों को भजने वालों को, होते हैं प्राप्त भूतगण ही,
अरु जिनकी मुझमें भक्ति रही, वे आकर मिलते मुझमें ही ।
श्लोक (२६)
जिसके अन्तस में भक्ति रही, जो श्रद्धा भाव रखा करता,
उपहार मुझे देता जो भी, अर्जुन मैं उसे ग्रहण करता ।
हो पात, फूल, फल अथवा जल, जिसका भी वह करता अर्पण,
देता जो प्रेम भरे मन से, होकर प्रसन्न मैं करूँ ग्रहण ।
हैं पूर्णकाम भगवान नहीं हैं, किसी वस्तु की भूख उन्हें,
वश में वे रहे भक्त के ही, भाता है सच्चा प्रेम उन्हें
होता है अन्तःकरण शुद्ध वे उस तक दौड़े आते हैं,
जो वस्तु समर्पित करे भक्त, वे उसे मुदित मन खाते हैं।
तज दिया अन्न दुर्योधन का, जिसमें न प्रेम का भाव दिखा,
बटलोई की सकरन खाई, बिन भोजन के परितोष लिखा ।
दो दाने अक्षत के खाकर, दारिद्रय सखा का किया दूर,
गज को गिराह से छुड़ा लिया, जिसने था अर्पित किया फूल।
जो प्रेम भक्ति के साथ मुझे, जो कुछ भी अर्पित वस्तु करे,
स्वीकार मुझे वह वस्तु रही, मन मेरा प्रीति भरा उमगे ।
हो पत्र, पुष्प, फल, जल अर्पित, मैं ग्रहण प्रीति के साथ करूँ,
बस मुझे चाहिए सरल प्रेम, भक्तों के प्रति मैं नित उमगूँ।
श्लोक (२७)
इसलिए कर्म जो कुछ करता, मेरे प्रति उन्हें समर्पित कर,
कौन्तेय हवन जो कुछ करता, उसका भी मुझे समर्पण कर ।
जितना जो कुछ भी दान करे, कर उसे समर्पित तू मुझको,
जो करे तपस्या धर्म करे, उन सबका अर्पण कर मुझको ।
जो धार्मिक कृत्य रहे सारे, जो कर्म लोक-व्यवहार भरे,
जो कर्म शरीर सुरक्षा के, जीवन के जो आधार बने ।
जो यज्ञ हवन के कर्म रहे या दान पुण्य सेवा व्रत के,
संयम के, तप के सभी कर्म हो मुक्त पार्थ, अर्पित करके ।
सोद्देश्य कर्म जो किए गये, पहिले कर तू उनका अर्पण,
वे कर्म रहा सक्रिय जिनमें, उनको भी करता चल अर्पण ।
कर चुका पूर्ण जिन कर्मो को, अर्पित कर दे उनके फल को,
इस तरह समर्पण, पूर्ण रुप से आयेगा, अर्जुन तुझको ।
सब कर्म सौंप देना प्रभु को, यह आत्म समर्पण कहलाता,
दैनिक कर्मों का जो प्रवाह, प्रभु पूजन से होकर जाता ।
प्रभु की उपासना जीवन की, दुष्करता का न बचाव रही,
यह विहित कर्म पूरा करने का, उन्नत आत्म प्रसार रही । क्रमशः….