‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 103 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 103 वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (१२)

हे पार्थ, मूढ़मति असुर बनें, राक्षसी स्वभाव करते धारण,

उनकी आकांक्षा व्यर्थ रही, बनते अनर्थ का वे कारण ।

हर कर्म व्यर्थ होता उनका, क्या ज्ञान, ध्यान सब व्यर्थ रहे,

रहते वे सदा विवेकहीन, बस तमोभाव के साथ बहे ।

 

ऐसी करते आशाएँ वे, जो कभी न पूर्ण होने पातीं,

कर्मो की गति विपरीत रहे, जो रहे उन्हें नित भटकाती ।

जो ज्ञान रहा वह अर्थशून्य, भ्रम दूर न उनका हो पाता,

भोगों को समझें सुख सच्चा, सच्चा सुख हाथ नहीं आता ।

 

संसार क्षणिक रुपों वाला, इससे चिपटे रहते हैं वे,

मनमोहित करती रहे प्रकृति, जिसके शिकार रहते हैं वे ।

परमात्मा का जो निहित तत्व, करते हैं उसकी अवहेला,

यह रजोगुणी, यह तमोगुणी, बस बस कर उजड़ रहा मेला ।

 

इस तरह रहे सम्मोहित जो, वे रहे अनीश्वरवादी ही,

हो गया आसुरी मन उनका, वे बनते रहे विवादी ही ।

हो सकें मुक्त यह नहीं हुआ, उनके न कर्म फिर सुधर सके,

जो अर्जित ज्ञान हुआ उनको, उनका सब कुछ निष्फल निकले।

श्लोक  (१३)

लेकिन हे पार्थ, महात्माजन, जो दिव्य प्रकृति में वास करें,

जो माया के आधीन नहीं, जो मोह विरत मुझको सुमरें ।

यह मान कि मैं हूँ आदि पुरुष, अविनाशी हूँ, भजते मुझको,

कर देता हूँ अविलम्ब मुक्त, जग की माया से मैं उनको ।

 

दलपूर्ण प्रकृति से दिव्य प्रकृति की रही धारणा भिन्न पार्थ,

आत्मानुभूति के पट खोले, उपलब्ध कराती जो यथार्थ ।

केन्द्रित न चेतना रहती है बस अहंकार के घेरे में,

विकसित पल प्रतिपल होती है, वह ब्रह्म बोध के डेरे में।

 

आत्मा जो प्रभु से मिलने को हो विकल ध्यान में रहे लीन,

मन प्रभु का करता रहे भजन, हो सके न वह रंचक मलीन ।

हो भाव अनन्य प्रबल मन में, ईश्वर को समझे अविनाशी,

वह रहा महात्मा उसकी पूजा फलती सार्थक हो जाती ।

श्लोक  (१४)

वे नित्य-निरंतर मेरा ही करते रहते हैं संकीर्तन,

चेष्टाएँ भक्तिभाव पूरित, दृढ़ निश्चय से करते महिमन ।

करके प्रणाम, वे आराधन, पूजन वंदन अर्पण करते,

वे रहे महात्मा जन ऐसे जो अपना लक्ष्य पूर्ण करते

 

मेरा गुणगान किया करते, दृढ़ता से करते व्रत पालन,

मेरे प्रति रखते पूज्य भाव, हो योग निरत करते पूजन ।

मन बुद्धि कर्म से जो सदैव केवल मुझसे जुड़कर रहते,

सर्वोच्च सिद्धि के अधिकारी वे रह वेद ऐसा कहते ।

 

परमात्मा प्राप्ति की इच्छा में, जो प्रबल, धर्म का राज्य रहे,

मन में सद्भाव सदा जागे, सचिन्तन की जो पुष्टि करे ।

जो ज्ञानरुप गंगा में मज्जन कर, हो अन्तर्वाहय शुद्ध,

जो ब्रह्मरूप के दर्शन कर हो परम तृप्त होकर प्रबुद्ध ।

 

जिसके शरीर में शान्तिरुप, बेलों में आई हो बहार,

आनंद सिन्धु से भरा कुम्भ, आनदिंत हो जो इस प्रकार ।

इस तरह भक्ति से ओत-प्रोत रह जाए छूट मोक्ष पीछे,

लीला में नीति जन्म लेती, जिसकी हर क्रिया में दीखे ।

 

धारण कर मानो अलंकार जो बने शान्ति के वह योगी,

सात्विक प्रवृत्ति में भक्तिभाव, धारण कर चलता वह योगी ।

हर वस्तु रही जो दृश्यमान, उसमें देखे मेरा स्वरुप,

अर्जुन वह रहा महान आत्मा, मुझ सूरज की वह रहा धूप ।

 

कीर्तन कर देता पाप नष्ट, बन्धन न रहें व्यवहारों के

दरकार न यम दम की रहती, मिटते अस्तित्व किनारों के ।

उद्घोष नाम का करते जो, हर कष्ट दूर हो जाता है,

साधू का दरस परस अर्जुन, मन में प्रकाश भर जाता है।

 

बिन सुधा पान के जीवों के जीवन की हो जाती रक्षा,

प्रभु के दर्शन, अपनी आँखों, जग बिना साधना के करता ।

लेते जन मेरा नाम जहाँ, मैं वहाँ तुरन्त पहुँच जाता,

धामों में चाहे मिलूँ न पर अपने कीर्तन में मिल जाता ।

 

बिरला ही जीव दिखाई दे, बैकुण्ठ धाम जो जाता है,

पर संगति जहाँ साधू की हो बैकुण्ठ वहीं आ जाता है।

जगते सब पुण्य तीर्थ बसते, अघ दोष दूर करती गंगा,

माया ज्वर से पीड़ित रोगी, बहती बयार करती चंगा ।क्रमशः…