‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 97..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 96 वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (१)

श्री भगवानुवाच-

भगवान कृष्ण ने कहा पार्थ, तू भक्त शुद्ध ईर्ष्या विहीन,

इसलिए तुझे बतलाता हूँ, यह ज्ञान परम अति गोपनीय ।

तू इसे जान, विज्ञान सहित, मन का सन्ताप हटायेगा,

जग-जीवन के सब क्लेशों से, तू त्वरित मुक्ति पा जायेगा ।

 

तू दोष दृष्टि से रहित भक्त, तू अधिकारी है पात्र पार्थ,

अति गोपनीय जो ज्ञान तुझे, बतलाता हूँ विज्ञान साथ ।

जो इसे जान लेता अर्जुन, वह मुक्त दुखों से हो जाता,

अज्ञान दूर होता उसका, वह परमानंद धाम पाता ।

 

विज्ञान सहित गम्भीर ज्ञान का, मैं रहस्य बतलाता हूँ,

अर्जुन बुराईयों से छुटकारे, का मैं मार्ग दिखाता हूँ।

होता है सत्य आधि विद्यक होता है सत्य प्रमाण सिद्ध,

याने अन्तर्ज्ञानात्मक है, या सत्य रहा मन शक्ति विद्ध ।

 

हम प्राप्त प्रबोध करें अर्जुन, या करें वास्तविक ज्ञान प्राप्त,

समझें स्वभाव की गहराई, क्या रुप वस्तु का है यथार्थ?

जो ज्ञान दार्शनिक लोगों का, वह ज्ञान परोक्ष कहाता है

परमात्मा तो आत्मा की गहराई में पाया जाता है ।

 

तुम आस्थावान रहे अर्जुन, तुम समझदार मेरे प्रिय हो,

बतलाता तुमको गुप्त बात, तुम अन्य नहीं मेरे हिय हो ।

छाती में माँ के दूध भरा, उसकी मिठास क्या वह जाने?

जो वत्स उसे लगकर पीता, उसमें ही सुख माता माने ।

 

भाण्डार कक्ष से बीजों को, तैयार भूमि में यदि बो दें,

तो क्या वे व्यर्थ कहायेंगे? न समझ रहे जो यों सोचें ।

असली नकली मिल जायें यदि, सिक्के तो छाँटे जाते हैं,

भूसे को उड़ा दिया जाता, तब ही अनाज हम पाते हैं।

 

विज्ञान ज्ञान ये तत्व अलग पैदा करते रहते उलझन,

विस्तार एक में मन का है, दूजे में जाग्रत अन्तर्मन ।

परमात्मा का जो ज्ञान, मनीषी उसे परोक्ष बताते हैं,

आत्मा को जान लिया जिनने, वे परमात्मा को पाते हैं।

श्लोक  (२)

यह ज्ञान रहा सबसे बढ़कर, इससे बढ़कर न रहस्य कोई,

इससे बढ़कर पावन न वस्तु, जो पात्र मिले बस उसको ही ।

धर्मानुकूल अभ्यास सिद्ध, यह तर्क-वितर्क का विषय नहीं,

यह रहा रहस्यों का राजा, बिन परिचय होता प्राप्त नहीं ।

 

वर्णन या कही-सुनी बातें, या बात बताई गई, नहीं,

इन पर आधारित ज्ञान नहीं, पहिचान बिना यह मिले नहीं ।

यह स्वयं प्रकाशित चमक रहा, बस हटे रुकावट का कारण,

जो रहा आवरण माया का, ज्यों रहे इन्दु पर अभ्र सघन ।

 

मानव को अन्तर्ज्ञान सतत, जाग्रत रह विकसित करना है,

पाना पवित्रता को उसकी, अरु आत्म रुप में जगना है ।

आत्मा को जिसने जान लिया, समझो परमात्मा को पाया,

उस साधक के मन में मानो, परमात्मा खुद चलकर आया ।

 

विज्ञान सहित जो ज्ञान रहा, यह सब विद्यायों का राजा,

राजा यह सभी रहस्यों का, यह अति पवित्र सद फल वाला ।

यह सुगम धर्म साधन करने, यह तत्व परम जो अविनाशी,

यह अनुभव में आता अर्जुन, जब आत्मा निजता को पाती

 

यह सब धर्मों का अनुष्ठान, यह ज्ञान प्राप्त जो कर लेता,

हो जाता जीवन्मुक्त पार्थ, वह मरकर नहीं जन्म लेता ।

यह ज्ञान सहज ही प्राप्य रहा, साधक चढ़ता सुख की सीढ़ी,

मिलकर यह नष्ट नहीं होता, इसकी न पकड़ होती ढीली ।

 

पावन पुनीत यह दिव्य ज्ञान, राजा है सब विद्यायों का,

जो गूढ रहा, जो गोपनीय, राजा उन सभी रहस्यों का ।

यह परम शुद्ध है परम धर्म, करवाता जो साक्षात्कार,

साधन करने में रहा सुगम, यह मत-दर्शन का रहा सार । क्रमशः…