अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’
अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “
श्लोक (२७)
जो तत्व निहित इन मार्गो का, हे अर्जुन जिसने भी जाना,
वह भक्त हमेशा सजग रहे, दुष्वार कि मोहित हो पाना ।
पथ एक रहा नित आलोकित, दूजे पर छाया तिमिर-निकर,
इसलिए मोह को तज अर्जुन, पालन तू भक्ति योग का कर ।
करता उपासना जो सकाम, शुभ कार्यो का निर्वाह करे,
पुण्यात्मा जीव अगर ऐसा, अपने तन का जब त्याग करे ।
जाए वह कृष्ण मार्ग से तो, कर्मानुसार भव को पाता,
हो जाता क्षय जब पुण्यों का, वह जन्म नया लेकर आता ।
निष्काम भाव से कर्मयोग-का पालन करता जो योगी,
कर्तव्य भाव का त्याग करे जागा जो रहे सांख्य योगी ।
ये दोनों शुक्ल मार्ग से जा पाते हैं, प्रभु का परमधाम,
– अर्जुन जिसको यह रहता है दोनों मार्गों का तत्व-ज्ञान
हो कर्मयोग या ध्यानयोग, या भक्ति योग या ज्ञान योग,
योगी होते इनके साधक, होता जिनको उपलब्ध योग ।
साधन में इनके लगा हुआ पर तत्व न मार्गो का जाने,
वह योगी रहा विमोहित ही, जो अपना भला न पहिचाने ।
सारे लोकों का भोग रहा, अति तुच्छ, रहा वह नाशवान,
जो ब्रम्हलोक पर्यन्त लोक, वे नहीं सदा हैं प्राणवान ।
परमेश्वर की ही प्राप्ति रही, जो बन्धन मुक्त कराती है,
अर्जुन सच्चे योगी की मति, न विमोहित होने पाती है ।
हे पार्थ योग ही साधन है, जो भगवत्प्राप्ति कराता है,
योगी ही दोनों मार्गों का रे तत्व समझने पाता है ।
आसक्त न भोगों में होता, तू योगयुक्त हो जा अर्जुन,
रे भक्ति प्रधान कर्मयोग में, तत्पर कर ले अपना मन ।
मानव जीवन थोड़े दिन का, क्या पता मृत्यु कब आ जाए,
क्षण प्रतिक्षण साधा नहीं गया, क्षण कौन कि टूट बिखर जाए।
हो जाए भ्रष्ट योग सारा, बस किसी एक क्षण में गिरकर,
इसलिए रहो तत्पर अर्जुन, साधन में रत तुम अविनन्तर ।
यह देह रहे या न रहे पर, ज्ञानी जन यही समझते हैं,
‘हम ही है ब्रह्म’ नहीं माया के भ्रम में वे जन पड़ते हैं।
रस्सी में सर्प दिखाई देता उसका कारण रस्सी है,
घट फूटे आकाश तत्व की, केवल बचती हस्ती है।
क्या पानी को होता है आभास कि लहरें क्यों आतीं?
तल पर करतीं रहतीं नर्तन, और कहाँ फिर खो जातीं?
वह पानी तो सदा एक सा, पानी ही बनकर रहता,
लहरों से उत्पन्न न होता, नहीं लहर के संग मरता ।
रहें देह में और देह के साथ स्वयं जो ब्रह्म हुए,
उन्हें विदेही समझो अर्जुन, नहीं विदेही कभी मरे
देशकाल की बातें सारी, अपने आप चला करतीं,
जो होता तत्वज्ञ, नहीं वे उसको कभी छला करतीं ।
देखो अर्जुन घट मिटता है, नहीं कभी आकाश मिटे,
ब्रह्मरुप हो जाता है वह, हुआ ब्रह्म का ज्ञान जिसे ।
अच्छा बुरा न मार्ग रह जाता, उसको जो ब्रह्मज्ञ हुआ,
योग युक्त जो हो जाता है, वह ही ब्रह्म स्वरुप हुआ ।
अर्जुन, तुम योग युक्त होकर, अपने स्वरुप को पहिचानो,
तुम आदि अन्त से रहित रहे, तुम ब्रह्म रुप हो यह जानो ।
तुमको न मोह फिर लोकों का, लोकों के सुख का सालेगा,
वह ब्रम्हरुप का बोध सतत, तेरे अन्तस में जागेगा ।
श्लोक (२८)
अपना वेदाध्ययन परिचर्या, स्वाध्याय दान तप यज्ञ सभी,
क्रियाएँ जीवन की सकाम, अरु दर्शन ज्ञान विधान सभी ।
इन सबके पुण्य फलों को तज, जो भक्ति योग पालन करता
वह अन्त समय में हे अर्जुन, मेरा ही परम धाम वरता ।
अर्जुन तात्विक ढंग से रहस्य, यह योगी जन जो जान रहे,
वे वेद, यज्ञ, तप, दान पुण्य के जो फल उनके रहे परे ।
इसमें कोई संदेह नहीं, योगी इन सबको लांघ चले,
संसार चक्र से मुक्त रहे, वह दिव्य पुरुष को प्राप्त करे ।
वेदों का अध्ययन कर चाहे, वैदिक बन जाए बहुत बड़ा,
या फसल पका ले पुण्यों की, वह जिससे यज्ञ-विधान सधा ।
या तप में तपकर बने दिव्य, या देकर दान महान बने,
पर ब्रह्म प्राप्ति जिसको हो ली, उससे बढ़कर कोई न रहे ।
सुख ब्रह्म प्राप्ति का अतुल रहा, स्वर्गादिक सुख सब हेटे हैं,
पलड़ा न ब्रह्म सुख का उठता, पलडे पर सब सुख चढ़ते हैं।
वे सभी दशाएँ निम्न रहीं, योगी जिनको तय कर जाता,
अन्तिम सुख नित्यानंद रहा, अर्जुन योगी उसको पाता ।
।卐 । इति अक्षर ब्रह्म योगो नाम अष्टमोध्यायः ।卐।