नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’
अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’
श्लोक (३)
रहा परम रमणीय आत्मसुख, सुख यह परम पवित्र रहा,
सुखकर रहा समझने में यह, सुलभ और अनुकूल रहा ।
धर्म दृष्टि से सुगम सरलतम, स्वयं प्राप्त होने वाला,
फिर भी जन अज्ञानी इससे विरत रहा आँखों वाला ।
गौ के थन में दूध भरा होता, पर किल्ली उसे तजे,
पीने रक्त अशुद्ध देह की चमड़ी से किल्ली चिपके ।
निकट कमल के भंवरा रहता, मेढ़क भी तो निकट रहे,
पान करे मकरन्द भ्रमर पर मेढ़क कीचड़ में लिपटे ।
द्रव्य गड़ा धरती के भीतर किन्तु मनुज जो अज्ञानी,
रहे दरिद्रावस्था में ही, भोगे नाना दुख प्राणी ।
आत्माराम रहे प्रत्यक्ष सभी के लेकिन अज्ञानी,
भटक वासनाओं में मृगजल में ढूँढा करता पानी
मुँह का अमृत-घूँट बुलक कर, भागे मृग जल के पीछे,
अर्जुन अहंकार का अंधा, उसे न पारस मणि दीखे ।
प्राप्त नहीं वह मुझको होता, गोता खाता रहे सदा,
मैं तो सूरज जैसा खिलकर नित्य सभी के साथ रहा ।
श्रद्धा रहित पुरुष को सम्भव नहीं कि वह मुझको पा ले,
संभव नहीं कि छुटकारा वह, चलती चाकी से पा ले ।
मैं ही अर्जुन मेरु दण्ड बन साधे रखता, काया को,
मुझे समर्पित हुआ न जो, वह लांघ न पाया माया को ।
हे शत्रु विजेता अर्जुन जो, इस भक्ति योग से विमुख रहे,
या श्रद्धाहीन चले पथ पर, वे मुझको नहीं कदापि मिले ।
वे प्राप्त नहीं होते मुझको, बस रहें भटकते उस जग में,
जो मृत्युरुप विकराल रहा, सुख-शान्ति नहीं जिस जीवन में।
श्लोक (४)
मेरी प्राकृत इन्द्रियाँ सजग, इनसे अतीत अव्यक्त रुप,
संपूर्ण जगत में व्याप्त रहा, मेरा वह ही अव्यक्त रुप ।
जड़ चेतन यह ब्रह्माण्ड सकल मुझ में ही सदा अवस्थित है,
पर मैं उनमें हूँ नहीं, पार्थ, यह जग-क्रम पूर्ण व्यवस्थित है ।
मैं निराकार, मैं सगुण पार्थ, अव्यक्त व्यक्त मेरा स्वरुप,
ब्रम्हाण्ड सकल जड़-जंगम जग, धारण करता मेरा स्वरुप ।
परिपूर्ण जगत सारा मुझसे मुझमें ही निहित जगत सारा,
सबसे अतीत, संबंध रहित, अर्जुन यह मेरा पैसारा
परमेश्वर लोकातीत मगर अस्तित्व जगत का उससे है,
लेकिन न रुप कोई ऐसा जो उसे दिखाने सक्षम है ।
परमात्मा को परिपूर्ण रुप से व्यक्त न कोई कर सकता,
वह देशकाल से परे रहा, अभिव्यक्त न होती वास्तविकता ।
अणु अणु में व्याप्त रहा फिर भी संबंध रहित सबसे अतीत,
अपनी महिमा में नित्य सिद्ध, सारा जग हो जाता व्यतीत ।
पा सके पार उसकी महिमा का, ऐसा कोई अन्य नहीं,
सबसे परमेश्वर परे रहा यों विद्यमान वह सभी कहीं ।
मेरा निर्गुण रुप उसी का, सकल विश्व विस्तार रहा,
दूध दही बन जाता जैसे, बीज बिन्दु से तरु उभरा ।
निराकार ही सृष्टि रुप में, ले लेता आकार बड़ा,
मैं ही हूँ आधार, विश्व यह सारा जिस पर रहे सधा ।
महत्तत्व से तन तक सारे भूत-भाव मेरे कारण,
मुझमें भासित रहे, किन्तु मैं उनमें नहीं रहा अर्जुन ।
जैसे जल से फैन बने, पर नहीं फैन में जल रहता,
या संसार बसा सपने में, नींद टूटने पर ढहता । क्रमशः…