‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 99 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 99 वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (५)

मैं सर्वव्याप्त सब कुछ मुझमें, फिर भी मैं हूँ, अर्जुन असंग,

मेरा यह योगैश्वर्य देख, जिसके आगे है विश्व दंग ।

पाते हैं जन्म मरण पोषण, मुझसे संपूर्ण जीवधारी,

लेकिन सुन उनमें नहीं रही, आत्मा मेरी यह अविकारी

 

माया के परे स्वरुप रहा, उसको यदि देखोगे अर्जुन,

सारे भूतों को मुझमें ही, बसते पाओगे तुम अर्जुन ।

समझोगे उसको मिथ्या तुम, इसलिए कि सब कुछ मैं ही हूँ,

संकल्प रुप का सन्धिकाल, मायापट अनलख मैं ही हूँ।

 

संकल्प-सान्ध्य जब हो व्यतीत, अवशेष अखण्ड रुप बचता,

मिट्टी की मटकी का अंकुर, ज्यों नहीं जमीन में है बसता ।

वह तो कुम्हार की बुद्धि रही, जो उसे बनाया करती है,

पानी में जो लहरें उठती, उनको ज्यों हवा बिरचति है ।

 

तुम ही बतलाओ क्या कपास का, पेट भरा है कपड़ों से ?

यह दृष्टि प्रयोगधर्मी की है, कपड़े कपास से जो बनते ।

सोने के बनते अलंकार, पर सोना नष्ट नहीं होत,

जो ध्वनि हम पैदा करते हैं, प्रतिध्वनि उसका प्रतिफल होता।

 

दर्पण में जो प्रतिबिम्ब बने, प्रतिफल वह रहा देखने का,

बतलाओ क्या वह दर्पण में, अपने देखे के पहिले था ?

जैसा जो भाव बना लेता, वह वैसे दर्शन करता है,

अव्यक्त रुप जो व्यक्त हुआ, नाना रुपों में सजता है ।

 

मुझ अविकृत स्वरुप में जो, कल्पित भूतों को रोप रहा,

वैसे ही भूतों का उसको, मुझमें होता आभास रहा ।

कल्पित माया का खेल पार्थ, जब हटे रुप मेरा आए,

पर्वत भी घूम रहा दीखे, जब चक्कर खा तन गिर जाए ।

 

मन की उत्पन्न कल्पना से, लगते हैं भूत सत्य अर्जुन,

यदि उसे छोड़ देखा जाए,भूतों में मैं दिखता अर्जुन ।

संकल्प रहा ज्यों सन्निपात, बीमार बड़बड़ाता जिसमें,

मन के संकल्प-विकल्प उन्हें साकार बनाता मन जिसमें ।

 

अर्जुन सूरज की किरणों से, मृगजल का जो आभास हुआ,

मेरे निर्गुण स्वरुप में त्यों झूठे जग का विस्तार हुआ ।

ऐसा कुछ लोग समझते हैं, यह समझ रही अनुचित अर्जुन,

सच रहा, कि मैं ही भूत रहा, मैं सदानन्द, मैं चित-चेतन ।

 

मुझसे न अलग प्राणी कोई, क्या प्रभा सूर्य से अलग कभी ?

कुछ भेद नहीं मुझमें, जग में, मैं सबमें, मुझमें भूत सभी ।

ऐसा न समझना प्राणीमात्र से, है मेरा अस्तित्व अलग,

जो जन्म-मरण के चक्कर में, वह भी मुझसे न कदापि विलग।

 

परमात्मा का सजीव प्रगटन, यह जड़ चेतन संसार रहा,

परमात्मा जो निस्सीम उसी में, यह सीमित संसार बसा ।

पर ब्रह्म उसे परिपूर्ण रुप से, जगत न जाहिर कर पाए,

आंशिक अभिव्यक्ति रही उसकी, जिसको जग-जीवन झलकाए।

 

मुझमें न अवस्थित भूत सभी, लख अद्भुत योग शक्ति मेरी,

धारण-पोषण करके भी भूतों में न रही आत्मा मेरी ।

उत्पादक पालक होकर भी, मैं हूँ अलिप्त सबसे अर्जुन,

यह योग ईश्वरीय है इसको, लख ले, तू अपने खोल नयन ।

 

यह निराकार का सगुण रुप, जो सृजे करे धारण पोषण,

जो रहा भूतभृत परिपालक, जो रहा अतीव भूतभावन ।

फिर भी भूतस्थ नहीं अर्जुन, यह है ईश्वर का दिव्य योग,

सब द्वैत भाव मिटते उनके, जिनको सधता यह दिव्य योग । क्रमशः…