‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 95..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 95 वी कड़ी ..

                               अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’

  अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “

श्लोक  (२४,२५,२६)

जब महा प्रवासी के पथ में, हो अग्नि देवता अभिमानी,

दिन का अभिमानी देव सूर्य, हो शुक्ल पक्ष शशि अभिमानी।

षटमास उत्तरायण के सुर अभिमानी हों, जब देह तजे,

सहयोग मिले इन देवों का, ब्रह्मज्ञ पुरुष को ब्रह्म मिले

 

जब मिले मार्ग में धूम देव, अभिमानी देव यामिनी का,

अरु कृष्ण पक्ष का देव मिले, अभिमान प्रदर्शित जो करता ।

षटमास देव सब अभिमानी,जब सूर्य दक्षिणायन होता,

योगी पाता है चन्द्र लोक, जीवन से मुक्त नहीं होता ।

हे अर्जुन मत यह वेदों का, जग से प्रयाण जब मनुज करे,

दो रहे मार्ग उसके आगे, वे शुक्ल रहे या कृष्ण रहे ।

जो शुक्ल मार्ग, उस पर चलकर, जीवन यात्री सद्गति पाता,

अरु कृष्ण मार्ग का पथिक सदा, रहता है बस आता जाता ।

 

जीवन प्रकाश अरु अंधकार के मध्य एक संघर्ष रहा,

है कारक एक मुक्ति का तो दूजा बंधन का हेतु बना ।

आध्यात्मिक सत्य महान यहाँ जिसका होता है उद्घाटन,

अज्ञान-रात्रि में भटक रहा होता है सारा जग-जीवन ।

 

दो शाश्वत मार्ग रहे जिन पर सारा जग पैर बढ़ाता है,

मिलता है एक प्रकाशित दूजे को अंधियारा पाता है ।

चलता जो आलोकिक पथ पर वह नहीं लौटकर फिर आता,

अंधियारे पथ का पथिक मगर जाता, जाकर वापिस आता

 

सामर्थ्य विलक्षण देवों का जो बल को अधिक बढ़ाते हैं,

गति को कर देते तेज मदद वे बिन मांगे पहुंचाते हैं ।

जठराग्नि दीप्त उसका प्रकाश, हो शुक्ल पक्ष का दिन कोई,

हो मास उत्तरायण का अरु साधक हो अभ्यासी योगी ।

 

जब देह तजे इन योगों में तो बल देवों का पा जाता,

विस्तीर्ण मार्ग उसका सारा तय, आसानी से हो जाता ।

यह मार्ग अर्चिरा कहा गया, योगी का होता योग्य काल,

हर सीढ़ी पर रक्षा करती रहती देवों की कृपा ढाल

पहिली सीढ़ी जठराग्नि रही, दूजी सीढ़ी हो अग्नि प्रबल,

अगली सीढ़ी फिर शुक्ल पक्ष, फिर शुक्ल पक्ष का पर्व-दिवस।

हो माह उत्तरायण का फिर, ये योग सभी जब साथ सधैं,

योगी जो देह तजें इनमें, वे भवबंधन के पार रहें ।

 

पथ जिस पर रहता अंधकार, वह काल अयोग्य रहा अर्जुन,

दे पाता मुक्ति न योगी को उस निशा मार्ग का अवलम्बन ।

वातादि दोष से अन्तस में भर जाता एक कुहासा सा,

जिसमें शरीर का ज्ञान सभी, धीरे-धीरे गुम जाता सा ।

 

रहता न ठीक से उजियाला, रहता न ठीक से अंधकार,

जिस तरह चन्द्रमा को ढंक लेता है नभ का बादल विकार ।

मरता भी नहीं न जीता है, ऐसी होती हालत विचित्र,

दोलन में जीवन और मरण के, डोला करता भ्रान्त चित्त ।

 

धुँआ घेर लेता है मन को, और इन्द्रियों को मति को,

नहीं नियन्त्रित करने पाता है चिन्तन अपनी गति को ।

प्राप्त किए जीवन के सारे लाभ नष्ट होते दिखते,

कृष्ण पक्ष रहता है, रहती रात्रि अयन दक्षिण वृत के ।

 

मृत्युकाल में सब योग इकट्ठे जिसके हो जाते,

धून मार्ग यह इसमें योगी, चन्द्रलोक तक ही जाते ।

, कहलाता अयोग्य काल यह, मुक्ति नहीं पाता योगी

होता क्षय पुण्यों का जिस क्षण, जन्म नया पाता योगी ।

 

एक माग ह साधा अर्जुन मार्ग दूसरा वक्र रहा,

नौका मिल जाती है जिसको, वह क्या गहरे में उतरा?

राजमार्ग को छोड़ कौन बंकिम पथ को अपनायेगा?

सुधा-गरल को पहिचाने जो, वह क्या विष को खायेगा?

 

दैव योग से मिल जाए जो, होता अंगीकार वही,

साधक की इच्छा से होता पथ का सदा चुनाव नहीं ।

सतत रहे अभ्यास उसी का अन्त समय पालन होता,

आते आते हाथ सवेरा, कभी दूर दृग से होता ।

 

रहे देवता एक, एक से अधिक शक्तिशाली अर्जुन,

अग्नि देव से अधिक दिव्य है, देव दिवस का ज्योतिर्तन ।

पृथ्वी से आकाश लोक तक होती है इसकी सीमा,

शुक्ल पक्ष के बली देव के आगे यह होता धीमा ।

 

अधिक दिव्य जो दिवस देव से, वहाँ जीव को पहुँचाता,

शुक्ल पक्ष का जीव प्रथम फिर कृष्ण पक्ष का है जाता ।

इसी तरह उत्तरायण पहिले, बाद दक्षिणायन का क्रम,

अपने अपने क्षेत्र सम्हाले है सबका अपना विक्रम ।

 

देव उत्तरायण का होता शुक्ल देव से अधिक बली,

अन्तरिक्ष से छै: लोकों तक ऊपर उसकी बात चली ।

अपनी सीमा से ऊपर की सीमा में पहुंचा देता,

एक देवता भार दूसरे को देकर चुप हो लेता

 

छै: महिने का दिन, उतने ही महिनों की है रात वहाँ,

अन्तरिक्ष के ऊपर छै: लोकों तक है अधिकार जहाँ ।

परमधाम जाने वाले अधिकारी को वह मदद करे,

उसका काम कि अपनी सीमा से वह उसको पार करे ।

 

सूर्य लोक तक पहुंचे कोई, चंद्र लोक तक पहुँच रहे,

सूर्य लोक से परमधाम तक, प्रभु पार्षद के साथ गए ।

चन्द्रलोक में रुक रह जाते, प्रभु से मिलन हो पाता,

योगी वह फिर जन्म दुबारा लेकर धरती पर आता ।

 

धूम्र देवता, रात्रि देवता, कृष्ण पक्ष का देव रहे,

और दक्षिणायन के महिनों का अभिमानी देव रहे ।

उस पथ से मरकर जो जाता योगी चन्द्रलोक पाता,

पूरे कर सुखभोग स्वर्ग में, वापिस धरती पर आता ।

 

इस पथ के ये सभी देवगण, अंधकार के हैं स्वामी,

जिनके लोकों में मरकर योगी करता है मेहमानी ।

एक लोक से लोक दूसरे में योगी को पहुँचाते,

जिसका जो कर्तव्य उसे तत्परता से करते जाते ।

 

नहीं उल्लंघन करते सीमा का, न अनधिकृत कुछ करते,

अन्धकार के पटल गहन से गहन अधिक होते चलते ।

पुनरागमन शील लोक तक रहता इनका पैसारा,

ब्रह्मलोक से नीचे क्रमशः उत्तर रहा वैभव सारा

 

देवयान अरु पितृयान, अर्जुन ये मार्ग सनातन दो,

इन पर सदैव चलते रहते, दुनिया के जीव चराचर जो ।

ये जीवमात्र के लिए रहे, अधिकार उन्हें है चलने का,

मरकर विमुक्त हो जाने का, या मर मर कर फिर जगने का ।

 

कर शुक्ल मार्ग का अवलम्बन योगी न जन्म फिर पाता है,

पर कृष्ण मार्ग पर जो चलता, वह लौट लौट फिर आता है।

कृष्ण मार्ग से मिलें लोक जो वे सब आवृत्तिवान रहे,

नीचे नीचे उतरें वे सब, ब्रह्म लोक तक जो पहुँचे । क्रमशः…