‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 94 ..

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 94 वी कड़ी ..

                               अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’

  अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “

श्लोक  (२३)

देहावसान के बाद प्राप्त करते, स्वरुप कैसा योगी,

यह है रहस्य की बात, बताता हूँ अब अर्जुन इसको ही ।

असमय जो करते त्याग देह का, पुन देह धारण करते,

जो शुद्ध समय में देह तजें, वे योगी स्वयं ब्रह्म बनते ।

 

अर्जुन यह कालाधीन रहा, मिलता है मोक्ष कि पुनर्जन्म,

जैसी गति सृति होना होती, जुड़ जाता है वैसा प्रसंग ।

जब मरणकाल होता समीप, हो जाते दुर्बल महाभूत,

फिर भी न निगलने पाता है, जिनकी गति गति को भ्रान्ति कूप ।

 

हो जाती क्षीण न सुधि जिनकी, जिनको प्रभु ज्ञान बना रहता,

विश्वास बना रहता मन में, मन से जो जीव नहीं मरता ।

देती हैं साथ इन्द्रियाँ भी, समुदाय ज्ञान का जगा रहे,

यह संभव होता योगी को, जठराग्नि तीव्र जब बनी रहे ।

 

वह योगी पाता मोक्ष, काल का चौघड़िया अनुकूल रहे,

पर मोक्ष नहीं मिलता, उसको यदिकाल चक्र प्रतिकूल रहे ।

ऐसे योगी का मार्ग, लक्ष्य तक नहीं पहुँचने पाता है,

रुक जाता वह जहाँ, वहीं से जन्म दुबारा पाता है ।

 

आँधी से हो या पानी से, जब ज्योति दीप की बुझ, जातीं,

आँखें हों ठीक भली लेकिन, वे देख नहीं कुछ भी पातीं ।

देहावसान के समय अगर तन में त्रिदोष पैदा होते,

ठण्डी पड़ती जठराग्नि, प्राण में प्राण नहीं अपने रहते ।

 

साधक के ऐसे जीवन में, घिरती छा जाती निबिड़ निशा,

ऐसे में कैसे सधे ध्यान, जब खुद का खुद को नहीं पता ।

योगी जो अर्चि: मार्ग से जाता नहीं लौटकर आता है,

जिसका जो अधिकारी होता, वही मार्ग अपनाता है।

 

हे अर्जुन अब मैं बतलाऊँ, उन दो कालों की बात तुझे,

जो मुक्ति दिलाएँ या रोकें, यह बात रही क्या ज्ञात तुझे?

वह काल कि जब जग से प्रयाण, तो फिर से हो जग में आना,

अरु काल गमन जिसमें जब हो, तो फिर न रहे आना-जाना । क्रमशः…