सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’
श्लोक (३)
होता है एक हजारों में, जो तत्त्वज्ञान में रुचि रखता,
फिर एक हजारों में होता, जो होने सफल यत्न करता ।
इन सिद्ध हुए पुरुषों में भी, दुर्लभ कोई मुझको जाने,
तत्वज्ञ कोटि में बिरलाजन, मेरे स्वरूप को पहिचाने ।
जीवों की सकल कोटियों में, दुर्लभ मनुष्य की योनि रही,
बन्धन का कारण यही योनि, आधार मुक्ति का यही रही ।
इसमें भी दुर्लभ वे मनुष्य, जो चलें साधना के पथ पर,
बिरला ही नीचे उतर सका, जो चढ़ा इन्द्रियों के रथ पर ।
कुछ रूढ़ि रीतियों में, बँधकर कुछ उलझ स्वत्व अधिकारों में,
करते रहते हैं समय नष्ट, उत्तरे न सत्य व्यवहारों में ।
थोड़े होते जो सजग हुए,करते प्रयत्न सत पाने का,
मिल जाती जिसको दृष्टि सही, वह नहीं दृष्टि के सँग चलता।
जीना न सीखने पाता वह, जो दृष्टि मिली उसके जैसा,
बिरला ही कोई होता है, जो सत पाने की रुचि रखता ।
सत के पथ पर चलने वाले, घटते घटते घट जाते हैं,
जो नहीं प्रलोभन में फँसते, वे बिरले जन बढ़ पाते हैं ।
इच्छा करते हैं बहुतेरे, पर करते सभी प्रयत्न नहीं,
बिन यत्न किए हो पाता है, क्या साधक कोई सफल कहीं ?
फिसलन से भरे हुए मग पर, चलना होता है सध सध कर,
यदि दृष्टि लक्ष्य पर नहीं सधी, हो जाता है वह इधर उधर ।
कोई हजार में एक रहा, जो योग सिद्धि का यत्न करे,
उन सिद्ध हजार योगियों में, एकाध मुझे कोई समझे ।
सम्पूर्ण रूप से जो मुझको, पहिचाने कठिन उसे पाना,
वह योगी एक करोड़ों में, जिसने हो ब्रह्म ज्ञान जाना ।
श्लोक (४,५)
यह ब्रह्मज्ञान अति श्रेष्ठ विषय, आगे बतलाऊँगा अर्जुन,
पहिले जो है विज्ञान विषय, इसको बतलाता इसको सुन ।
जैसे शरीर की छाया, हो माया ही मेरी छाया है,
इसको ही प्रकृति कहा जाता, इसमें त्रैलोक्य समाया है ।
हैं आठ रूप बँटकर जिनमें, भाषित हो रही प्रकृति मेरी,
महदादि तत्व के कार्य रूप ये, करते प्रकट शक्ति मेरी ।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु नभ ये,जो पंच तत्व कहलाते हैं,
मन, बुद्धि, अहम ये तीन तत्व, जो उनका योग बढ़ाते हैं।
यह मेरी अपरी प्रकार, विस्तार इसी का होता है,
जड़ रूप जगत को तत्त्व, दूसरा चेतन, उसे संजोता है।
जो धारण करके रखे जगत, जो रहा कारणों का कारण,
उत्पत्ति, विकास, विनाश सृष्टि में अपरा में चलता यह क्रम ।
हे पार्थ, प्रकृति मेरी अपरा, जो मुझसे भिन्न दिखाई दे,
है आठ तत्व में बॅटी हुई,यों एकाकार दिखाई दे ।
पृथ्वी जल अग्नि पवन अम्बर, से पंचतत्व ये महाभूत,
मन, बुद्धि और फिर अहंकार, ‘ये सब अपरा के रहे दूत ।
हे महाबाहु अर्जुन मेरी, यह प्रकृति, इसे ‘अपरा: कहते,
इसके सिवाय भी प्रकृति रही, जो चेतन जिसे ‘परा’ कहते
जो जीव रूप में भासित है, संघर्ष करें भौतिक जग से,
यह पराशक्ति भासित होती,, ब्रह्माण्ड सकल धारण करके । क्रमशः..