सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’
श्लोक (१)
भगवान उवाच :-
भगवान कृष्ण ने कहा पार्थ, मेरे प्रति भक्ति भाव संयुक्त
मन में मेरी अनुरक्ति लिए, योगाभ्यास करके तू नित ।
जानेगा मेरा जो स्वरूप, सम्पूर्ण रूप से उसको सुन,
मेरा ऐश्वर्य रहा कैसा, संयत होकर तू उसको गुन ।
अर्जुन तू भक्त अनन्य रहा, मुझमें ही रमा चित्त तेरा,
मेरे प्रति पूर्ण समर्पित है, मेरे प्रति अडिग प्रेम तेरा ।
तू भक्ति परायण योग निष्ठ, हर भाँति मुझे पहिचानेगा,
मेरा स्वरूप सम्पूर्ण रूप में क्या ?है इसको जानेगा ।
सम्बन्ध रहित पर ब्रह्म रूप, केवल यह नहीं रूप मेरा,
जड़-चेतन में जग-जीवों में, सबमें नित्त वास रहा मेरा ।
सारी विभूतियाँ सारा बल, ऐश्वर्य रहे ये गुण मेरे,
मेरा जो भक्त रहा, सब में, वह केवल मुझको ही हेरे ।
मैं आत्मरूप धारण करता, बसता जीवों के प्राणों में,
मेरी ही प्रकृति रही, बसता हूँ, मैं जिसके अवदानों में ।
अर्जुन तू मायासक्त मना, जानेगा ये सब हैं मुझसे,
जानेगा ये सब गुण मेरे, हैं आत्म रूप सब में प्रगटे ।
श्लोक (२)
तू ज्ञान और विज्ञान सहित, मेरे स्वरूप को जानेगा,
जग कार्य क्षेत्र है यह मेरा, इसमें तू मुझको पायेगा ।
मैं प्रकृति और हूँ पुरुष, नहीं पर सीमित इनके घेरे में,
विज्ञान ज्ञान की ज्योति, प्राप्त करने की कला अँधेरे में ।
अस्तित्व खोजती हुई बुद्धि, विज्ञान मार्ग पर चलती है,
सिद्धान्त मील के पत्थर, जैसे सांकेतिक वह गढ़ती है ।
पर ज्ञान रहा वह बोध प्रबोधन, आध्यात्मिक जो करता है,
जिसको पाकर पाने को कुछ भी, शेष न मग में बचता है।
जो ज्ञान रहा, वह बोध-ज्ञान, विज्ञान प्रपंच-ज्ञान समझो,
विज्ञान तर्क संगत आस्था, है क्रिया पक्ष सारा समझो ।
प्रापंचिक बुद्धि जहाँ रुकती, वह कूल ज्ञान का होता है,
नौका ज्यों टिकी किनारे से, जिसमें न कम्प कुछ होता है ।
कुछ काम न करता तर्क, वहाँ पीछे रह जाते हैं विचार,
मानो मन-बुद्धि मयी हलचल, का हो चुकता है समाहार ।
अज्ञान नहीं विज्ञान नहीं, बस ज्ञानरूप आलोक रहे,
आनन्द प्रशान्त सिन्धु लहरें, जो केवल अनुभव में उतरे ।
अब पूर्ण ज्ञान विज्ञान सहित, तेरे प्रति पार्थ कहूँगा मैं,
जो कारण परम कारणों का, वह तात्विक ज्ञान कहूँगा मैं ।
जिसको जाना सब कुछ जाना, ज्ञातव्य नहीं कुछ शेष बचा,
आभायित जिससे जड़ चेतन, वह दिव्य ज्ञान सुन परम सखा ।
वह ज्ञान समग्र रूप का जो, है अंश मात्र ब्रह्माण्ड जहाँ,
यह विश्व एक कण के जैसा, अस्तित्व सकल ज्यों बिन्दु जहाँ ।
वह प्राप्त हुआ जिस साधक को, फिर बच्चा न कुछ उसको पाने,
कुछ नहीं समझने को बाकी, कुछ बचा न उसको समझाने । क्रमशः…