‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 76 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 76 वी कड़ी ..

सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’

श्लोक (१)

भगवान उवाच :-

भगवान कृष्ण ने कहा पार्थ, मेरे प्रति भक्ति भाव संयुक्त

मन में मेरी अनुरक्ति लिए, योगाभ्यास करके तू नित ।

जानेगा मेरा जो स्वरूप, सम्पूर्ण रूप से उसको सुन,

मेरा ऐश्वर्य रहा कैसा, संयत होकर तू उसको गुन ।

 

अर्जुन तू भक्त अनन्य रहा, मुझमें ही रमा चित्त तेरा,

मेरे प्रति पूर्ण समर्पित है, मेरे प्रति अडिग प्रेम तेरा ।

तू भक्ति परायण योग निष्ठ, हर भाँति मुझे पहिचानेगा,

मेरा स्वरूप सम्पूर्ण रूप में क्या ?है इसको जानेगा ।

 

सम्बन्ध रहित पर ब्रह्म रूप, केवल यह नहीं रूप मेरा,

जड़-चेतन में जग-जीवों में, सबमें नित्त वास रहा मेरा ।

सारी विभूतियाँ सारा बल, ऐश्वर्य रहे ये गुण मेरे,

मेरा जो भक्त रहा, सब में, वह केवल मुझको ही हेरे ।

 

मैं आत्मरूप धारण करता, बसता जीवों के प्राणों में,

मेरी ही प्रकृति रही, बसता हूँ, मैं जिसके अवदानों में ।

अर्जुन तू मायासक्त मना, जानेगा ये सब हैं मुझसे,

जानेगा ये सब गुण मेरे, हैं आत्म रूप सब में प्रगटे ।

श्लोक (२)

तू ज्ञान और विज्ञान सहित, मेरे स्वरूप को जानेगा,

जग कार्य क्षेत्र है यह मेरा, इसमें तू मुझको पायेगा ।

मैं प्रकृति और हूँ पुरुष, नहीं पर सीमित इनके घेरे में,

विज्ञान ज्ञान की ज्योति, प्राप्त करने की कला अँधेरे में ।

 

अस्तित्व खोजती हुई बुद्धि, विज्ञान मार्ग पर चलती है,

सिद्धान्त मील के पत्थर, जैसे सांकेतिक वह गढ़ती है ।

पर ज्ञान रहा वह बोध प्रबोधन, आध्यात्मिक जो करता है,

जिसको पाकर पाने को कुछ भी, शेष न मग में बचता है।

 

जो ज्ञान रहा, वह बोध-ज्ञान, विज्ञान प्रपंच-ज्ञान समझो,

विज्ञान तर्क संगत आस्था, है क्रिया पक्ष सारा समझो ।

प्रापंचिक बुद्धि जहाँ रुकती, वह कूल ज्ञान का होता है,

नौका ज्यों टिकी किनारे से, जिसमें न कम्प कुछ होता है ।

 

कुछ काम न करता तर्क, वहाँ पीछे रह जाते हैं विचार,

मानो मन-बुद्धि मयी हलचल, का हो चुकता है समाहार ।

अज्ञान नहीं विज्ञान नहीं, बस ज्ञानरूप आलोक रहे,

आनन्द प्रशान्त सिन्धु लहरें, जो केवल अनुभव में उतरे ।

 

अब पूर्ण ज्ञान विज्ञान सहित, तेरे प्रति पार्थ कहूँगा मैं,

जो कारण परम कारणों का, वह तात्विक ज्ञान कहूँगा मैं ।

जिसको जाना सब कुछ जाना, ज्ञातव्य नहीं कुछ शेष बचा,

आभायित जिससे जड़ चेतन, वह दिव्य ज्ञान सुन परम सखा ।

 

वह ज्ञान समग्र रूप का जो, है अंश मात्र ब्रह्माण्ड जहाँ,

यह विश्व एक कण के जैसा, अस्तित्व सकल ज्यों बिन्दु जहाँ ।

वह प्राप्त हुआ जिस साधक को, फिर बच्चा न कुछ उसको पाने,

कुछ नहीं समझने को बाकी, कुछ बचा न उसको समझाने । क्रमशः…