षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (१२,१३,१४)
परिशुद्धि हृदय की करने को,हो निरत साधना में योगी,
वश में अपनी इन्द्रियाँ करे, मन को वश में कर ले,योगी ।
एकाग्र चित्त मन को करने, अभ्यास निरन्तर किया करे,
आचार विचार विमल रखकर, दृढ़ निश्चय से वह ध्यान करे।
सीधा शरीर हो तना हुआ, सीधा हो गला, कि सिर सीधा,
नासाग्र भाग पर दृष्टि रहे, एकाग्र ध्यान, अपलक सीधा ।
भटके न इधर या उधर कहीं बस एक बिन्दु पर दृष्टि रहे,
मन कर्म वचन से तज मैथुन, वह ब्रह्मचर्य की राह चले ।
तन से हो विमल शान्त मन से, संयमित रहे, भय शून्य रहे,
मन में मेरा ही ध्यान रखे, अन्तस में मेरा भाव रखे ।
मेरे प्रति आत्म समर्पण कर, माने जीवन का लक्ष्य मुझे,
दृढ़ संयम से आसन व्रत से,योगी कर लेता प्राप्त मुझे ।
व्रत ब्रह्मचर्य के पाले वह, निर्भीक शान्त हो वीर्यवान,
मन-प्राण सहज सुस्थिर होते, सधने लगता है आप ध्यान ।
जाग्रत होती है कुण्डलिनी, षडचक्रों का भेदन करती,
फिर सरस्त्रार में शिव से जुड़ एकात्म अमिय वर्षण करती ।
कुण्डलिनी परमेश्वरी रही, परमात्म चेतना साधक की,
जो परे प्रपंचों के होकर, मानो शाश्वत शिव को वरती ।
तत्त्वों का भेदन कर तत्त्वों के गुण को साधक पा जाता,
उसमें सामर्थ्य अलौकिक, अपने आप अनोखा आ जाता ।
निद्रा, आलस्य, शीत-गर्मी, विशेष विघ्नकारी अर्जुन,
इसलिए रहा आवश्यक यह दृढ आसन हो केन्द्रित हो मन ।
जब ध्यान करे सिर काया और गले को वह सीधा साधे,
सुस्थिर हो नेत्र-दृष्टि उसकी, देखे न कहाँ क्या है आगे
जो प्राप्त सिद्धियाँ हों उसको, वह करे न उनका दुरुपयोग,
बहु सिद्धि प्रदायक होता है, साधक को, अर्जुन, ध्यान योग ।
विक्षेप तनिक भी हुआ कि साधक को न योग यह सध पाता,
जो रिद्धि-सिद्धियों से न बँधा, वह योगी पार्थ मुझे पाता ।
हो जाता शक्ति रूप योगी, बन रहता वह प्रशान्तात्मा,
वह दिव्य गुणों का धारक हो, सबमें देखे अपनी आत्मा ।
वैराग्य भावना जगी रहे, साधन केवल रहता शरीर,
रह जाते लोकाचार नहीं, योगी ज्यों बहता हुआ नीर ।
करता तन से तन को विनष्ट, पृथ्वी, जल, तेज विलुप्त हुए,
बन वायु रुप योगी रहता, शिवतत्त्व अकेला जहाँ मिले ।
मिल जाती वायु वायु में फिर, आकाश अकेला रह जाता,
पहिले होता है शब्द, वहाँ, फिर शब्द समा मुझमें जाता ।
करता है जो योगाभ्यास पाता है मोक्ष ध्यान योगी,
पर पात्र रहे, अधिकारी हो, सधता है योग उसी को ही ।
हे अर्जुन तू सत्पात्र रहा, यह योग तुझे सध सकता है,
यह कठिन नहीं रहता उसको, जो निश्चय को दृढ़ रखता है।
मन, वाणी और कर्म से,हर देश, काल में सजग रहे,
हर भाँति दशा कोई भी हो, जो मैथुन का परित्याग करे ।
ईश्वर प्रणिधान करे योगी, खोले सब द्वार चेतना के,
बढ़ता आगे तो द्वार मोक्ष के, उसको खुले हुए मिलते ।
सृजनात्मक दृष्टि प्राप्त करता, रहता है कर्मनिरत योगी,
तल्लीन कर्म से सुख पाए, आसक्ति विरत रहता योगी ।
वह कमल सरीखा जल में रह, जल से न लिप्त रहने पाता,
हो जाता उसका सोच भिन्न, विक्षुब्ध नहीं वह हो पाता । क्रमशः…