षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (१०,११)
करता होता अभ्यास सतत, तब अन्तःकरण शुद्ध होता,
हो सिद्धासन या पद्मासन, जो सुख दे,वही उचित होता ।
उद्देश्य ध्यान का नहीं कि होवे सांसारिक इच्छा पूरी,
या सिद्धि मिले, ऐश्वर्य मिले, यह रहा नहीं उद्देश्य कभी।
परमात्मा को पाने का ही, केवल उसका उद्देश्य रहा,
करना चाहे अज्ञान नाश, जो भीतर उसके रहा भरा ।
अवगुण, पापों से चाह रहा, वह साधक अपना छुटकारा,
हो राग-द्वेष से मुक्त हृदय, विक्षेप हटे मन का सारा ।
आसन पर बैठ इन्द्रियों की, क्रियाओं को वश में करता,
मन परमेश्वर में लगा रहे अविछिन्न भाव चिन्तन करता ।
है यही ध्यान का योग पार्थ, साधक जिसका अभ्यास करे,
दिन दिन निर्मल होता जाए, दिन दिन ऊँचे सोपान चढ़े ।
आसन पर कैसे बैठें कैसे करें भावना विधि क्या हो?
किन नियमों का पालन करना किस तरह ध्यान का धारण हो?
यह विषय साधना का गहरा थोड़े में इसे बताता हूँ,
हृदयंगम करने सत्य भावना प्रमुख रही, यह पाता हूँ ।
प्रारंभिक अनुशासन तन-मन का, प्रथम उसे पाले योगी,
दृढ़ कर ले अपने आसन को, जो सरल सुखद समझे योगी ।
उसके भीतर जो शक्ति भरी, उस सबको वह जागृत कर ले,
फिर साथ चेतना के अपनी, अपने प्राणों तक वह बढ़ ले
क्या नित्य रहा, क्या है अनित्य, पाए साधक इसकी क्षमता,
कर्मों के पार्थिव या कि दिव्य फल की न करे मन में इच्छा ।
उत्सुकता आत्म स्वतन्त्रता की समझे क्या रहा आत्मसंयम,
अर्जुन जो साधे ध्यान योग उसके होते हैं ये उपक्रम ।
‘शिव’ स्रोत ज्ञान का रहा, रहा अस्तित्व मात्र का स्रोत वही
‘शिव’ में समाप्त चिन्तन होले, साधक हो आया सिद्ध वही
आत्मानुशासन अरु अनाशक्ति, शिव तक साधक को पहुँचाती
वैराग्य वृत्ति जीवन-यात्री का, यात्रा सम्बल बन जाती
गिर जाते मन के मनोवेग, तन का आसन दृढ़ होने पर,
खुल जाते द्वार शक्तियों के, जो रहीं रुकी तन के अन्दर ।
हो रहें निरामय अंग-अंग अरु कान्ति देह की बढ़ जाए,
सुख में डूबा रहता योगी जो ध्यान योग को अपनाए ।
तत्त्वों पर विजय प्राप्त करता करता हल्का होकर विचरण
हो जाता है सामर्थ्यवान पहिले का उसका चंचल मन
करता है मोक्ष प्राप्त अर्जुन साधक वह बनकर अधिकारी,
इस ध्यान योग की होती है, साधक की अपनी तैय्यारी । क्रमशः…