‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 65

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 65वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (१५)

निश्चित क्रियाएँ कर योगी, तन, मन सबके दृढ़ संयम से,

अभ्यास मार्ग पर नित चलकर, पा चले सफलता क्रम क्रम से ।

भव रोग शान्त उसका होता है खुल जाता व्योम द्वार उसको,

मिल जाता भगवदधाम उसे, प्रिय होता वह योगी मुझको ।

 

इस तरह किए वश में मन को, जो सदा योग में लगा रहे,

वह शान्ति प्राप्त करता अर्जुन, उपलब्ध उसे निर्वाण रहे ।

निर्वाण अवस्थित जो मुझमें,पा जाता है मुझको योगी,

वह परमशान्ति का धाम रहा, जिसमें जाकर बसता योगी ।

 

अतिचार किया जी भर जिसने, छूटी न पाशविकता जिसकी,

बढ़ती ही रहीं लालसाएँ, बढ़ती ही रही ‘अती’ जिसकी ।

जो मध्यम मार्गी नहीं रहा, सन्तुलन न जिसने अपनाया,

इस योग साधना का उसने, समझो अधिकार नहीं पाया ।

 

जो जिव्हा के वश में रहता या निद्रा के रहता अधीन,

जो ठान दुराग्रह सहे भूख या सहे प्यास,मन का मलीन ।

जिसके वश में न शरीर रहा, पोषित करता जो अहंकार,

विषयों का सेवन करे बहुत, या करे ऊपरी बहिष्कार ।

 

ढोंगी अतिचारी या कुबुद्धि,जो रोक न पाए चंचलता,

कितना भी ध्यान करे साधक, पर उसको ध्यान नही सधता ।

पालन करना होता संयम, सन्तुलन बिठाना होता है,

है यही ‘कर्म में बस जाना’ जो फलित साध से होता है।

श्लोक (१६)

हे अर्जुन भोजनजीवी जो,भोजन का ध्यान नहीं रखते,

भोजन करते हैं बहुत अधिक या भोजन कम से कम करते।

अनियमित सोते या बहुत अधिक या बहुत अधिक जागा करते,

आहार शुद्धि बिन चर्या के, वे कभी नहीं योगी बनते ।

 

परिमाण उचित हो भोजन का जो, कार्य करे सो करे ठीक,

जो बोले तो सीमित बोले जो, चले पकड़ आचार लीक ।

जो ठीक समय सोए, जागे, अपने तन का जो ध्यान रखे,

रहने को स्वस्थ जरूरी जो, उतना नियमित व्यायाम करे ।

 

आलस्य प्रमाद न हो जिसमें, जो करे न अपनी शक्ति क्षीण,

अपने निश्चय पर अडिग रहे, साधन विधि में जो हो प्रवीण ।

अनुशासन जीवन में लाए, ‘निवृत्ति नहीं लाये संयम,

दुख होते उसके दूर सभी आनन्द भरा होता जीवन ।

श्लोक (१७)

आहार-विहार व्यवस्थित हो, जिसकी चर्या में हो नियमन,

कर्मों में जिसका हो लगाव, हो कर्मनिरत जिसका उद्यम ।

हो सजग जागने सोने में, उसको यह योगाभ्यास सधे,

जो ध्यान योग के साधक का दुख दूर करे, आनन्द भरे

 

तन स्वस्थ रखे, मन स्वस्थ रखे अपनी सीमा का ध्यान रखे,

आहार युक्त, विहार युक्त, वह कर्म-युक्त सचेष्ट रहे।

हों तृप्त इन्द्रियाँ दें उसको, सन्तोष करे योगाभ्यास,

विनियत हो जाता चित्त एक दिन परमात्मा में अनायास ।

श्लोक (१८)

अभ्यास निरत योगी जिस क्षण, मन को अपने वश में करता,

अरु दिव्य तत्त्व में भली भाँति सुस्थिर हो आत्मरूप लखता ।

सम्पूर्ण कामनाएँ उसकी गिर जाती अपने आप स्वयं,

वह पुरुष कहाता ‘योगयुक्त’, यह सिद्धावस्था है अर्जुन ।

 

सिद्धावस्था के अनुभव को, शब्दों में व्यक्त न कर पाते,

जो आत्मलीन योगी उसके स्वर मौन हुए सब रह जाते ।

वह सार्वभौम चेतनता में, करता निवास समरस होकर,

वह चेतनता ही कर्मों को, संचालित करे केन्द्र बनकर ।

 

तजना होती वैयक्तिकता, अपनी जड़ता का निर्मूलन,

आवरण दूर करना होते, करना होता मन का नियमन ।

निःशेष मूर्तियाँ मन की कर, पाता योगी अविकार शून्य,

साधक को राह बताता गुरु, हो ज्ञानी होता जो प्रबुद्ध ।

 

यह रचनात्मक क्रम है, है दिशा शून्य को पाने का,

वह शून्य ध्यान से भर जाता, आत्मा का सुख अपनाने का ।

कोई न धारणा आत्मा का, कैसा स्वरूप बतला पाये,

यह ध्यान फलित होता है जब योगी के अनुभव में आये।

 

यह अकर्मण्यता नही, रही करतार्त्मकता विशुद्ध अर्जुन,

जिसका कर्ता होता,न व्यष्टि का, पर समष्टि का निर्मल मन ।

रे ध्यान काल में चित्त अचल, परमात्मा में हो जाता है,

फिर दुनिया की माया का, उसपर असर नहीं हो पाता है। क्रमशः…