पञ्चमोऽध्यायः – ‘कर्म-सन्यास योग’
श्लोक (८,९)
तत्वज्ञ सौख्य योगी जिसने, अपने को प्रभु से एक क्रिया
सामने बहुविध सब कर्म किए, पर कर्म न उसने एक किया।
उस देख रहा, वह सुनता है, वह छूता, सूंघ रहा फिर भी
उसने न सुना, देखा कुछ भी, कुछ हुआ न सैंधा ही कुछ भी।
बह गमन करे पर चले नहीं, सोता है किन्तु नहीं सोता,
लेकर भी साँस नहीं लेता, बतियाता बात नहीं करता ।
बह त्यागे किन्तु नहीं त्यागे, वह ग्रहण करे पर नहीं करे
आँखे मूँदे खोले लेकिन, कोई उन्मीलन नहीं करें ।
बह समझ रहा होता ऐसा, हो रहा इन्द्रियों के कारण,
“मैं नहीं कर्म का कर्ता हूँ’ वह करे धारणा यह धारण ।
जो विषय इन्द्रियों के उनका कर रहीं इन्द्रियाँ ये वर्तन,
मैं आत्मरूप हूँ, जहाँ नहीं होता है कोई परिवर्तन ।
श्लोक (१०)
करता है जो भी कर्म, उन्हें परमात्मा को अर्पित करता,
करता है जो भी कर्म, नहीं उनमें आसक्ति तनिक रखता ।
बह पुरुष कमल के पात सदृश, जल में रह जल से दूर रहे,
लगते न कर्म के पाप उसे, वह उनसे सदा अलिप्त रहे ।
श्लोक (११)
आसक्ति रहित होकर अर्जुन, करते हैं कर्म कर्मयोगी,
रखते वे नहीं ममत्व बुद्धि, पर केवल कर्म करें योगी ।
तन मन से बुद्धि इन्द्रियों से, सम्पादित होते रहें कर्म,
वे आत्म शुद्धि के लिए, मात्र करते रहते हैं सकल-कर्म ।
श्लोक (१२)
कर्मों के फल का त्याग किए, पाता है परम शान्ति योगी,
वह शान्ति, प्राप्त प्रभु होने पर, पाता है जिसे कर्म योगी ।
लेकिन सकाम पुरुषों को, जो फल में आसक्ति रखा करते,
वह शान्ति नहीं मिलने पाती, उल्टे वे बन्धन में बँधते ।
श्लोक (१३)
नौ द्वारों का पुर मानव तन,रहता है जिसमें जीवात्मा,
सब कर्मों को तजकर मन से,बन जाता है वह मुक्तात्मा ।
वश में वह अन्तःकरण किए,न करे न कर्म वह करवाए,
आनन्द रूप परमात्मा का, सुख उसका अन्तस छलकाए ।
श्लोक (१४)
कर्मों में कर्तापन मनुष्य का,रही न ईश्वर की रचना,
अज्ञानी अहंकार के वश, कर्त्ता बनता, करता रचना ।
कर्मों को भी रचता न ईश, वह रचे न कर्मों के फल को,
अज्ञानी का आसक्ति भाव रे, कर्मों से जोड़े उसको ।
ईश्वर जो रहा अकर्त्ता वह, माया उपाधि से जगत रचे,
विस्तार करे वह त्रिभुवन का, पर लिप्त कर्म में नहीं रहे ।
कोई न कर्म उसको छूता, टूटे न योग निद्रा उसकी,
कर्त्ता न रहा वह पर फिर भी, यह सृष्टि स्वयं चलती रहती ।
वह पंचमहाभूतों के गुण, समुदाय सभी का व्यूह रचे,
इस तरह रचे रचना सारी, उसमें त्रुटि कभी न कहीं दिखे ।
वह विद्यमान हर प्राणी में, लेकिन वह नहीं किसी का है,
यह सृष्टि हुई उत्पन्न स्वयं, अरु सृष्टि विनाश उसी का है
कर्तापन, कर्म, कर्मफल से, आत्मा का कुछ सम्बन्ध नहीं।
कतपत स्वभाव जो प्रकृति करे वह ही करता ये कर्म सभी।
अर्जुन मनुष्य का कर्तापन, अरु कर्म, कर्मफल, ये तीनों
अमेश्वर की रचना न रही, रचना स्वभाव की ये तीनों । क्रमशः…