चतुर्थोऽध्यायः – ज्ञान योग
दिव्य ज्ञान का योग, ज्ञान-कर्म-सन्यास योग “याने ज्ञान और कर्म के सच्चे -त्याग का योग
श्लोक (१६)
हे अर्जुन, बड़े बड़े ज्ञानी, जिसमें पड़कर चकरा जाते,
क्या कर्म, अकर्म किसे कहते वे भेद न यह करने पाते ।
हे पार्थ, तुझे मैं कर्म, अकर्म रहे क्या यह बतलाता हूँ,
तू इसे समझकर दोष मुक्त हो जायेगा जतलाता हूँ ।
जैसे खोटा सिक्का समता करता है चोखे सिक्के की,
हो जाया करती भ्रमित दृष्टि अन्तर को समझ नहीं पाती ।
प्रति सृष्टि विनिर्मित करने का उपलब्ध जिन्हें सामर्थ्य रहा,
नैष्कर्म समझते वे जिसको वह उनका वास्तविक कर्म रहा ।
वे कर्म-पाश में फँस जाते भ्रम में पड़ जाते हैं ज्ञानी,
उनके बारे में क्या कहना जो मूर्ख रहे जो अज्ञानी ।
श्लोक (१७)
यह उचित मनुष्य के लिए रहा वह जाने क्या है कर्म पार्थ,
वह यह भी जाने गलत कर्म क्या है क्या है अकर्म पार्थ ।
है मार्ग कौन सा सही सहज ही नहीं समझ में आता है,
बहुरूप प्रयोजन के होते जिनमें सत पथ गुम जाता है ।
ज्ञानी ही सबके बीच अडिग, कमाँ का करता निर्धारण,
जाग्रत रहता उसका विवेक, समभाव करे उर में धारण ।
जो वर्णाश्रम के योग्य कर्म अरु वेद-विहित जो कर्म रहे,
जो रहे अकर्म विकर्म सभी, उनके स्वरूप को वह समझे।
श्लोक (१८)
कर्मों में देखे जो अकर्म, अरु जो अकर्म में कर्म लखे,
वह रहा मनुष्यों में ज्ञानी, योगी ऐसा कृत-कर्म रहे ।
नहीं सन्तुलन मन का बिगड़े, अनासक्त वह रहता है,
शान्ति आन्तरिक रखे सुरक्षित, काम अक्रिय रह करता है ।
एक भाव परमात्मा से होकर कर्तव्य करें जब हम,
रहे अकर्म वह या अभाव उसका, जो रहा कर्म-बन्धन ।
नहीं मानता है वह कर्त्ता, किसी कर्म का अपने को,
कर्मातीत रहे फिर भी वह करता लौकिक कर्मों को ।
देखे ज्यों प्रतिबिम्ब आदमी, नदी किनारे पानी में,
समझ रहा होता है वह, वह नहीं कि जो है पानी में ।
या फिर पेड़ दौड़ते लगते, उसे नाव में जो बैठा,
ज्ञात उसे चल रही नाव, पर तरुदल खड़ा वहीं रहता ।
करते हुए कर्म सारे वह, रहा अकर्ता जान रहा,
उदय-अस्त होना सूरज, का जैसे कर्म-विधान-रहा ।
दीखे वह मनुष्य के जैसा, लेकिन वह परब्रह्म रहा,
होता सूर्य नही पानी में, जो उसका प्रतिबिम्ब रहा
पुरुष नहीं जिसने कुछ देखा, सकल विश्व को देख लिया
कुछ भी किया न कर्म किन्तु उसने जग का हर कर्म किया ।
भोग किया जीवन का सब कुछ, नहीं भोग कुछ करने पर,
बैठा रहा जगह पर अपनी, घूम लिया पर सारा जग ।
श्लोक (१९)
ज्ञान- अग्नि में जिस ज्ञानी ने, अपने कर्मों को जारा,
इच्छा – संकल्पों से मुक्त कि जिसका कर्म क्षेत्र सारा ।
कहलाता है पण्डित, वह करके भी कर्म नहीं करता,
स्वार्थ, लालसा से विमुक्त वह दृष्टि परम व्यापक रखता ।
श्लोक (२०)
रखे नहीं आसक्ति कर्म के फल में, रहे सन्तुष्ट सदा,
आश्रित नहीं किसी के रहता, करता अपने कर्म सदा ।
वह कुछ भी कर नहीं रहा है, हे अर्जुन, ऐसा समझो,
रहे समर्पित परमात्मा को, कर्म सकल, ऐसा समझो । क्रमशः…