‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..28

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 28वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (५९)

होते हैं ऐसे पुरुष कि जो विषयों को ग्रहण नहीं करते,

करतीं न इन्द्रियाँ भोग, मगर मन की आसक्ति नहीं तजते ।

उनकी न निवृत्ति होने पाती, घटती न वासनाएँ उनकी

, ऊपर से तो दीखें विरक्त, पर चाल रही चंचल मन की।

 

पर स्थितप्रज्ञ निजात्मा का, करके अर्जुन साक्षात्कार,

आसक्ति रहित हो जाता है, उसके हटते सारे विकार ।

 

पर अज्ञानी कछूए जैसा, दीखे विषयों से हटा हुआ,

पर भाव विषय का मन के भीतर, रहता उसके भरा हुआ ।

वह निवृत्त नहीं होने पाता, आसक्ति बनी रहती मन में,

आसक्ति दूर होती उसकी, जन प्रभु को जीवन में ।

 

हे अर्जुन सुनो बताता हूँ, मैं बात मजे की तुम्हें एक,

करते हैं इन्द्रिय दमन खूब, ऐसे होते साधक अनेक ।

लेकिन रसना पर अपनी वे, रख पाते नहीं नियंत्रण हैं,

विषयों के अलग-अलग उनको, यों कसते जाते बन्धन हैं ।

 

ज्यों किसी वृक्ष की शाखायें, तोड़े, पर सींचे जड़ को हम,

तो नई टहनियों का उगना, क्या कभी रोक पाते हैं हम?

रसना कर देती पुष्ट विषय, विषयों से भर जाता शरीर,

आसक्ति जकड़ लेती मन को, जो बना रहे हरदम अधीर ।

,

लेकिन हे अर्जुन जब साधक, परब्रमह स्वानुभव में होता,

तन के व्यवहार लुप्त होते, मन तब आसक्ति रहित होता ।

फिर नहीं वासनाएँ रहती, इन्द्रियाँ भूल जातीं उनको,

यह दशा सुलभ होती उसको, हम स्थित प्रज्ञ कहें जिसको ।

यह जीव देह का विषयों से, होता निवृत्त सयम करके,

आसक्ति भोग की बनी रहे, हो पाती दूर न वह उससे ।

वह हटती है, उत्तम रस का अनुभव करता, जब बद्धजीव,

निवृत्ति प्राप्त कर पुरुष परम, पाता समाधि सुख रस अतीव ।

श्लोक (६०)

अन्यथा न वश में आती ये, इन्द्रियाँ बहुत बलवती रहीं,

आसक्ति जरा भी शेष रही, इनके प्रवाह में बहा वही।

अभ्यास नियम संयम की जो, घेराबन्दी करके चलते,

वे भी सध पाते नहीं जरा, जब भँवर जाल में वे फँसते।

 

मन को जो अपनी मुट्ठी में रखते उनको भी बहका दें,

इनका प्रभाव ही ऐसा है, ये शान्त बुद्धि को दहका दें

अति सूक्ष्म विषय होते इनके जो रिद्धि-सिद्धि बनकर आते,

यों रुप जाल होता इनका, योगी भी जिसमें फँस जाते ।

 

जिस तरह यक्षिणी मान्त्रिक को, रखती है बहुत भुलावे में,

साधक भी जाते छले बहुत, माया के छिपे छलावे में

जो बुद्धिमान उनके मन का, ये हरण बलात कर लेती हैं,

इनका स्वभाव मन्थनकारी, मन बुद्धि उन्हें मथ देती हैं।

 

साधक टिक पाते नहीं जहाँ, साधारण जन की क्या गिनती?

, इन्द्रियाँ साथ हो विषयों के बहुभांति मनुज का मन मथतीं ।

इसलिए उसे जो बुद्धियोग चाहे बस इतना ध्यान रहे,

वशवर्ती करे इन्द्रियों को, अपनी सारी आसक्ति तजे ।

ये रहीं इन्द्रियाँ वेगवती, ले जातीं साथ बहाकर मन,

बलवान रहीं इतनी, इनके आगे न ठहर पाए हर मन ।

हे पार्थ विवेकी पुरुषों का, मन ये बलपूर्वक हर लेतीं,

होती हैं जब उत्तेजित ये, मन पर अधिकार जमा लेतीं ।

 (६१)

इसलिए इन्द्रियाँ सब अपनी, हे अर्जुन अपने वश में कर,

मेरे प्रति पूर्ण समर्पित हो, इन्द्रिय संयम का पालन कर ।

जो अपनी पूर्ण चेतना को, मुझमें स्थित कर देता है,

वह स्थित प्रज्ञ कहाता है-वश में वह मन कर लेता है ।

 

ऐसा योगी जो योगनिष्ठ, सब विषयों की इच्छा तजकर,

अपनी समस्त इन्द्रियों को, सर्वांश रुप अपने वशकर ।

अनिमेष समाहित चित्त हुआ, मुझमें होकर जो ध्यान मग्न,

वह स्थितप्रज्ञ हुआ, उसका होता न कभी फिर ध्यान भग्न ।

 

विषयों के सुख की मन में फिर उसके न जागती चाह कभी,

वह आत्मबोध से युक्त रहे, फिर नहीं भूलता मुझे कभी ।

 

लेकिन जो केवल ऊपर से, इन्द्रिय-विषयों का त्याग करे,

मन के भीतर यदि किंचित भी, वह शेष वासना, भाव रखे।

तो सांसारिक उसके प्रपन्च से, मुक्त नहीं वह हो पाता,

विष थोड़ा भी हो किन्तु असर, वह अपना कब न दिखा जाता ? क्रमशः…