‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..27

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 27 वी कड़ी  ..

              द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

         ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (५३) 

हो पार मोह की दलदल से, जब बुद्धि विमल हो जायेगी,

श्रोतव्य और श्रुत दोनों से, निर्वेद हुई रह पायेगी ।

सुस्थिर हो आत्मरुप में तब, पायेगी सच्ची सुख-समाधि,

अर्जुन न व्यापती फिर योगी को, किसी काल में आधि-व्याधि ।

 

बहुभाँति वचन सुनने से जो हो गई बुद्धि विचलित तेरी,

जब अचल भाव से ईश्वर में, होकर प्रशान्त होगी ठहरी ।

तब प्राप्त योग को हुआ स्वयं का सत्य देखने पायेगा,

संयोग नित्य परमात्मा से, हे अर्जुन, तब हो जायेगा । हे

श्लोक (५४)

अर्जुन उवाच:-

अर्जुन ने पूछा हे केशव, मैं चाह रहा कुछ समाधान,

हो गई बुद्धि सुस्थिर जिसकी, हो आया हो जो समाधिवान ।

उस सिद्ध पुरुष को लक्षण क्या, वह स्थिर बुद्धि कैसे बोले?

कैसे बैठे किस तरह कहो, वह गमन करे, खुद को खोले?

 

किन भावों से भावित होकर निस्त्रत होती उसकी वाणी?

व्यवहार रहित क्षण में उसकी, क्या दशा रही अन्तर्यामी?

किस तरह आचरण करता वह कैसा उसका व्यवहार रहा?

वह सक्रिय रहा या अक्रिय रहा, मन में मेरे यह प्रश्न जगा?

 

समझे किसको स्थित प्रज्ञा, उसको कैसे हम पहिचानें?

पहिचान रही उसकी कैसी, हम किसे सिद्ध योगी मानें?

हे लक्ष्मीपति किस तरह रहे, अरु वह कैसा आचार करें?

वह कैसे जग-जीवन में अपना सारा जग व्यापार करें?

श्लोक (५५)

श्रीकृष्ण उवाच :-

केशव बोले, हे पार्थ सुनो, जो विषय वासनाएँ मन की,

ये बाधाएँ अति प्रबल आत्म सुख से हैं जो वंचित रखतीं ।

पर जिसका मन परितृप्त, कामनाओं से जो निवृत्त रहा,

हो जिसे आत्म-सन्तोष, आत्म सुख से हो अन्त:करण भरा।

 

जो विषया सक्ति बढ़ाता, काम, न कर पाए आसक्त जिसे,

इच्छाएँ तृष्णाएँ मन की विचलित कर पायें नहीं जिसे

स्वानन्द सुखी जो आत्मा में अपनी, नित करता रहे रमण,

वह स्थित प्रज्ञ हुआ समझो, उसकी थिर बुद्धि हुई अर्जुन ।

 

भगवान कृष्ण ने कहा पार्थ, जब जीव पूर्णत: त्याग करे,

मन से, उत्पन्न वासना का, जो विषयों को मन में उपजे ।

अरु रहे पूर्ण सन्तुष्ट चित्त, आत्मा में भाव प्रतिष्ठित कर,

वह सुस्थिर बुद्धि हुआ समझो, वह स्थितप्रज्ञ रहा नरवर ।

श्लोक (५६)

दुख आएँ विविध मगर अर्जुन, दुख से जो होता नहीं दुखी,

सुख की इच्छा में लिप्त नहीं, मत गर्व करे जब हुआ सुखी ।

भय, काम, क्रोध से विगत हुआ, ऐसा जिसका पूर्णत्व रहा,

हो भेद-रहित जिसका जीवन, समझो वह स्थितप्रज्ञ रहा ।

 

हो सुख या दुख दोनों में जो, समभाव रखा करता अर्जुन,

विचलित न विपत्ति करे जिसको, सुख में निस्पृह हो जिसका मन ।

आसक्ति, क्रोध या भय विमुक्त, जिसका अन्तस जिसकी वाणी,

ऐसा मुनि स्थितप्रज्ञ रहा-संयत रहती जिसकी वाणी ।

 

तीनों प्रकार के दुख में मन, जिसका उद्वेग रहित रहता,

सुख में रहता स्पृहा शून्य, समभाव हुआ सुख-दुख सहता ।

जिसके मन में आसक्ति नहीं, भय से विमुक्त जिसका मन हो,

हो मुक्त क्रोध से जिसका जी, सुस्थिर मति मुनि कहते उसको ।

श्लोक (५७)

प्रिय अप्रिय अनन्त वस्तुओं में, अनुकूल नहीं,

प्रतिकूल नहीं, रहता समभाव सदा जिसका, है पुरुष सुस्थिर बुद्धि वही ।

वाणी जिसकी हो प्रेममयी, ममता आसक्ति रहित निर्मल,

रहता न राग, रहता न द्वेष, वाणी समत्व का ज्यों निर्झर ।

 

जिस तरह चन्द्रमा पूनम का, सबको देता है सम प्रकाश ।

है कौन भला है कौन बुरा, इसका क्या करता वह विचार?

व्यवहार सभी से जो समान करता, समबुद्धि कहाता है,

रहता है चित्त सुस्थिर, उसमें अन्तर कभी न आता है ।

 

ममता उसकी रहती अखण्ड, वह जीव मात्र पर दया करे,

अच्छे पर नहीं घमण्ड करता, वह नहीं बुरे पर घृणा करे ।

करता न हर्ष, करता न शोक, बस आत्मरुप में रहे लीन,

वह स्थितप्रज्ञ रहा अर्जुन, होता है वह योगी प्रवीण ।

 

सर्वत्ररहा वह स्नेह रहित ,शुभ में जो आनंदित न हुआ ,

जो नहीं अशुभ में हुआ दुखी, वह पूर्ण ज्ञान में निष्ठ हुआ।

अप्रभावित रहता द्वन्द्वों में, जिसके न चित्त में हो हलचल,

पाता समाधि वह सत्वमयी, वह स्थितप्रज्ञ रहा अविचल ।

 

किस तरह बोलता है योगी, यह बात यहाँ तक बतलाई,

किस तरह बैठता है योगी, अब जायेगी वह बतलाई ।

वश में जब रहें इन्द्रियाँ सब, अपने विषयों से उपरत हो,

वह रहा बैठना योगी का, हम ‘स्थितप्रज्ञ’ कहें जिसको

श्लोक (५८)

अपने सब अंगों को कछुआ, सब तरफ समेट लेता है ज्यों,

विषयों से सभी इन्द्रियों को, जो पुरुष हटा लेता है त्यों ।

हो गई बुद्धि स्थिर उसकी, वह ज्ञानी हुआ यथार्थ परम,

अधिकार इन्द्रियों पर उसका, वश में उसके है उसका मन ।

 

ज्यों सभी दिशा से अंग सभी लेता समेट कच्छप अपने,

कर लेता, दर इन्द्रियों को, इन्द्रिय-विषयों से जो अपने ।

समचित्त हुआ ऐसा योगी, वह स्थित प्रज्ञ रहा अर्जुन,

मति विचलित जिसकी हुई नहीं, विषयों से विचलित हुआ न मन । क्रमशः…