‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..26

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 26वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (४८)

कर्मो के निष्पादन की विधि, क्या हो जागे यह जिज्ञासा,

इसका उत्तर आगे अर्जुन, श्रीकृष्णचंद से यों पाता ।

हे अर्जुन योग युक्त होकर, निष्काम भाव से कर्म करो,

हो दैवयोग से कार्य पूर्ण, तो उसमें मत उमगो उछलो ।

 

कारणवश अगर अपूर्ण रहे, तो दुख न मनाओ इस कारण,

हो कार्य सिद्ध अथवा असिद्ध, समभाव करो मन में धारण ।

 

पूरा हो जाये कार्य, उसे हो गया सिद्ध इतना समझो,

पूरा न हुआ जितना, हो गया, उसी को हरि-इच्छा समझो ।

अच्छा हो अथवा बुरा, रखो दोनों में अपना मन समान,

है यही योग की विधि, समत्व का दे सकते हैं इसे नाम ।

श्लोक (४९,५०)

आसक्ति रहित समबुद्धि रहे, कर्तव्य कर्म से जब जुड़कर,

वह बुद्धियोग कहलाता है, होते हैं कर्म जहाँ सधकर।

ये कर्म कामना रहित रहे, वे निम्न कोटि के जो सकाम,

ये परम मुक्ति के हेतु रहे, वे हेतु बन्धनों के अनाम।

 

फॅस रहते उनमें जो मनुष्य, रह जाते पात्र दया के बन,

करते वे कर्म सकाम रहे, चकरी बनकर उनका जीवन ।

इसलिए पार्थ समभाव जगा, तू बुद्धि योग का आश्रय ले,

तज पाप-पुण्य दोनों को ही, अपनी यह जीवन नौका खे।

 

समबुद्धि पुरुष पाप-पुण्य, दोनों ही छूटें इस जग में,

कर्मों की यही कुशलता है, समता का भाव रहे मन में

बस यही उपाय रहा अर्जुन, होते न कर्म बन्धनकारी,

इस बुद्धि योग की कर्मयोग पर, होती कृपा चमत्कारी

 

यह बुद्धियोग ही श्रेष्ठ रहा, इसके प्रति निश्चिय भाव रखो,

इसकी प्रवृत्ति से तर जाते, मत फल की कोई आश रखो।

है सार योग का यह समत्व, इसका कर अर्जुन अवलम्बन,

यह रही कर्म की उच्च कोटि, निश्तेज जहां भव के बन्धन ।

श्लोक (५१)

समबुद्धि भाव से कर्मो का करना ही कर्म कुशलता है,

जो रहे मनीषी जन उनको, यह योग सुगम हो सधता है ।

आसक्ति हेतु जो बन्धन की, तजकर वे अपना कर्म करें,

हो जायें आवागमन मुक्त, वे निर्विकार पद परम वरें ।

श्लोक (५२)

अर्जुन जब मोह तजोगे तुम, वैराग्य भाव मन आयेगा,

उसको तजकर निर्वेद हुए, तब बुद्धियोग सध जायेगा ।

निर्दोष गहन तब आत्मज्ञान, जायेगा तुममें हे अर्जुन,

अन्तस हो जायेगा निर्मल, निष्काम ठहर जायेगा मन ।

 

कुछ अधिक ज्ञान पाने की तब, इच्छा न रहेगी कुछ मन में,

या पूर्व ज्ञान की सब सुधियाँ, बस शान्त हो रहेंगी मन में

चञ्चल हो जाती बुद्धि, इन्द्रियों की संगति पाकर अर्जुन,

हो आत्मरुप का लाभ तभी सुस्थिर होने पाता यह मन । क्रमशः…