‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..25

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 18 वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (४५)

तीनों गुण सत रज अरु तामस, से भरे हुए हैं वेद पार्थ,

केवल उपनिषद रहे जिनमें, सात्विक गुण की महिमा यथार्थ ।

भोगों के विपुल साधनों का कर रहे वेद सब प्रतिपादन,

बनते हैं सुख दुख के कारण, निर्लिप्त नहीं हो पाता मन ।

 

कर्मो का विशद निरुपण है, साधन उपासना के सारे,

त्रिगुणात्मक जैसी प्रकृति रही, वैसा स्वरुप आगम धारे ।

आसक्ति कामना ममता से, हे पार्थ रहित जो होता है,

वह आत्मवान निर्योग क्षेम का, साधक वाहक होता है ।

 

भोगों में, भोग-साधनों में, आसक्ति न रख तू, हे अर्जुन,

सुख-दुख द्वन्द्वों से रहित रहे, ऐसा कर ले तू अपना मन ।

तू अपने योग क्षेम की भी, सच्चे मन से चिन्ता तज दे,

जो नित्य वस्तु परमात्मा है, उसको सब कुछ अर्पण कर दे ।

श्लोक (४६)

वेदों में क्या कुछ नहीं रहा, कितने ही वर्णन आए हैं,

कितनी ही बातें कही गईं, कितने ही मार्ग सुझाये हैं ।

लेकिन उनमें से जो अच्छा, जो हितकारी उसको चुन लें,

सबका सब रहा न धारणीय, समझें इसको, इतना गुन लें।

 

दिखने लगते हैं मार्ग बहुत, होता जब सूरज का प्रकाश,

पर क्या मनुष्य चल पाता है, सारे मार्गो पर एक साथ?

या मानो सारा का सारा, यह भूतल जलमय हो आया

तो प्यास बुझाने प्यासा, जन क्या सारा पानी पी पाया?

 

जो मार्ग उचित चुनता उसको, पीता आवश्यक जल जितना,

वेदार्थ रहा तात्विक जितना, ज्ञानी जन ग्रहण करें उतना ।

इसलिए विचार के बाद पार्थ, तुमको स्वकर्म ही श्रेयस्कर,

कर्तव्य विमुख होना अनुचित, यह होता नहीं कभी हितकर ।

 

जो तत्वरुप परमात्मा को जाने, वह ब्राह्मण होता है,

वह नहीं भोग के कर्मों में, अपना अस्तित्व विगोता है।

रह जाता नहीं प्रयोजन कुछ वेदोक्त कर्म के सागर से,

जो जाती उसकी तृषा शान्त, जल पूरित अपनी गागर से।

श्लोक (४७)

अर्जुन तुमको कर्त्तव्य-कर्म, करने का बस अधिकार मिला,

याने परमेश्वर की आज्ञा पर, जिसका जग-व्यवहार चला ।

वह नहीं कर्म के बन्धन में, बन्धता तुम इतना याद रखो,

कर्तव्य करो, फल क्या होगा, मत इसकी तुम परवाह करो ।

 

अधिकार फलों पर कर्मों के, तेरा न रहा तू समझ इसे,

आसक्ति कर्म या कर्म-फलों, में उचित नहीं, तू समझ इसे ।

बस निष्पादन कर कर्म, कर्म के फल की इच्छा को तजकर,

कर प्राप्त अनामय पद कर्मों के, फल न रहें बन्धन बनकर । श्लोक (४८) क्रमशः…