मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 21 वी कड़ी ..
द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’
‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’
श्लोक (३२)
यह पूर्वजन्म का पुण्य रहा, इसको न युद्ध समझो अर्जुन,
सब धर्मो की यह निधि अमूल्य, सौभाग्य इसे समझो अर्जुन |
मानो यह कीर्ति कामिनी है जो वीर-वरण करने आई,
या पुण्य-घड़ी साकार हुई जो रुप युद्ध का धर आई ।
या फल दात्री चिन्तामणि ज्यों, सहसा मारग में मिल जाये,
या जम्हुआ रहे मुंह में सहसा, बूंद की अमृत टपक जाये ।
ऐसा प्रसंग यह प्राप्त हुआ, जिसकी न रही तुमको इच्छा,
होते वे क्षत्रिय भाग्यवान, जिनको ऐसा अवसर मिलता ।
यह खुला स्वर्ग का द्वार मिला, जिसको पाते हैं भाग्यवान,
अब देर न हो, अब चूक न हो, हो जाओ अर्जुन सावधान ।
श्लोक (३३)
अब युद्ध छोड़कर ऐसा यदि, करते तुम रहे शोक केवल,
तो अपनी हानि करोगे ही, कर लोगे नष्ट कीर्ति निर्मल ।
निन्दा के पात्र बनोगे तुम, होगा तुम पर दोषारोपण,
होना स्वधर्म से विमुख रहा, विधवा का अपमानित जीवन ।
या युद्ध क्षेत्र में चील बाज, जिस तरह चीथते हैं शव को,
घेरा करते हैं महादोष, उस तरह स्वधर्म विमुख नर को।
(३४,३५)
तुमने निवात कवचादि दानवों का संहार किया अर्जुन,
कर युद्ध स्वयं शिव शंकर से जो किया अतुल यश का अर्जन ।
मुँह अगर युद्ध से मोड़ोगे तो कीर्ति क्षीण हो जायेगी,
जो साख बन गई है जग में, वह पलभर में मिट जायेगी |
यदि क्षत्रिय-धर्म न पालोगे तो तुम्हें लगेगा पाप बड़ा,
भोगोगे अपयश का कलंक, कल्पान्त तलक जो रहे जुड़ा।
तब तक जीना अच्छा लगता, जब तक अपकीर्ति नहीं होती,
अपकीर्ति बड़ी है दुखदायी, इससे तो भली मृत्यु होती ।
हो भले तुम्हारा हृदय शुद्ध, हो अन्तस ईर्ष्या रहित भले,
यदि तुमने समर भूमि छोड़ी, तो तुम पर तीखे तीर चले ।
ये कौरव तुम्हें न छोड़ेंगे, क्या काम कृपालुता आयेगी?
बच भी यदि गये किसी कारण, क्या लाज न तुम्हें सतायेगी?
है एक बात यह भी अर्जुन, क्या तुमने नहीं विचार किया,
तुम बड़ी शान से आये हो, लड़ने क्या तुमने भुला दिया।
यदि वशीभूत करुणा के हो, लौटोगे वे क्या सोचेंगे? ,
क्या मान सकेंगे तुमको सच, क्या नहीं तुम्हें ताने देंगे?
जो नाम तुम्हारा सुनकर ही, कंप जाते थे, भय खाते थे,
सम्मुख आना तो दूर रहा, पहिले ही पीठ दिखाते थे ।
वे कायर तुम्हें बतायेंगे, क्या व्यंग्य-वाण सह पाओगे?
जो अर्जित मान किया अब तक, क्या उसे बचाने पाओगे ।
सम्मानित बहुत रहे जिनमें, उनमें लघु बन जाओगे तुम,
समझेंगे महारथी तुमको, हट गये युद्ध से डरकर तुम।
आरोप लगेगा तुम पर यह, रे अर्जुन रण से भाग गया,
भयभीत हो गया वह हमसे, रे वीर धनुर्धर भाग गया। श्लोक (३६) क्रमशः…