‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 192 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 192 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (१४)

वह मारा गया शत्रु मेरा, जो बचे उन्हें भी मारूँगा,

मैं ही हूँ व रे जग का ईश्वर, होगा जैसा मैं चाहूँगा ।

मैं भोग रहा ये सभी भोग, मैं भोक्ता हूँ, मैं सिद्ध पुरुष,

बलवान अकेला मैं ही हूँ, मुझ जैसा सुखी न अन्य पुरुष ।

 

मेरी समानता करे कौन, मैं जग में सबसे चढ़ बढ़कर,

जीवित क्या कोई रह सकता, जग में मेरा दुश्मन बनकर ?

मैंने अपने किस बैरी का, बतलाओं किया न शिरच्छेद ?

सब करते हैं मेरा पूजन, मेरा मिलता है किसे भेद?

 

वह काम क्रोध में रत अर्जुन, रखता है जो आसुरी स्वभाव,

विश्वास न ईश्वर में रखता, सब पर डाले अपना प्रभाव ।

दर्पित रहता उसका माथा, गर्वित रहती उसकी वाणी,

जी सका बैर करके मुझसे, क्या ऐसा भी कोई प्राणी?

 

जिसने भी किया विरोध उसे, यमपुरी नहीं कब पहुँचाया,

है कौन बड़ा हमसे जग में, हमने जय का ध्वज फहराया ।

हम जड़े उखाड़े या रोपें, वह जीता जिसे जिलाते हम,

कठपुतली सा वह नाच नचे, अंगुली से जिसे नचाते हम ।

 

वे चूर मान में रहे सदा, अपने को सर्वश्रेष्ठ मानें,

कोई न बड़ा उनसे जग में, सबका कर्ताधर्ता मानें ।

समझें वे परम स्वतंत्र रहे, कोई न अन्य ऐश्वर्यवान,

वे स्वामी सब ऐश्वर्यो के जग में हैं वे सबसे महान ।

 

हमसे न बड़ा कोई ईश्वर, सब पूजा करें हमारी ही,

हम असफल हुए न जीवन में, होती है विजय हमारी ही।

हम परम सिद्ध कर ज्ञान हमें, कुछ भी न छिपा हमसे जग में,

लोहा ले सके बली ऐसा, क्या कोई कहीं रहा जग में?

 

हम चाहें जिसे परास्त करें, चाहें हम कर दें सर्वनाश,

सुख सेवा करें हमारी सब, रक्षित पर आने दें न आँच

हम जान रहे अपना भविष्य, सामर्थ्य ज्ञात हमको अपना,

जिसको चाहा, पूरा न हुआ, ऐसा न रहा कोई सपना ।

 

हम परम सुखी, हम परम सबल, हम सिद्ध पुरुष भोक्ता सुख के,

हमसे बढ़कर कोई न रहा, हम पूजनीय सारे जग के ।

क्या कुछ न रहा इन हाथों में, जिनके आगे कोई न टिका,

इन हाथों ने ही माथे पर, अपना स्वर्णिम इतिहास लिखा ।

 

अतिलोभ, द्वेष, अभिमान भरा, वह आत्मा प्रशंसा करता है,

गुण बतलाता नृशंसता को, पाने अधिकार ललचता है।

शासन करने की यह प्रवृत्ति, क्या नहीं दासता लाती है ?

दोनों छोरों की शांति नहीं, कब घुट-घुट कर मर जाती है ?

 

मैं भोग्या पृथ्वी का राजा सुख-भोगों का मैं हूँ स्वामी,

जग में मेरी तुलना न रही, मैंने जग की नस नस जानी ।

जो करता काम, पूर्ण करता, मैं अपना आप नियन्ता हूँ,

मुझ पर न किसी का शासन है, मैं सिद्धकाम मनमन्ता हूँ। क्रमशः….