‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 191 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 191 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (१३)

आसुरी प्रकृति वाले निशिदिन, रे दिवास्वप्न देखा करते,

अज्ञान जनित वे आत्ममुग्ध, सम्मोहित अपने से रहते ।

धन आज प्राप्त पर्याप्त किया, कल इसको और बढ़ाऊँगा,

हो गया मनोरथ आज पूर्ण, दुगुना तिगुना कर लाऊंगा ।

 

जो आज किया अर्जित उसको, उपलब्धि बड़ी अपनी माने,

कल उसे बढ़ाकर पाने का, संकल्प नया मन में ठाने ।
अर्जित यह मेरा द्रव्य रहा, अर्जित ऐश्वर्य रहा मेरा,

इसको द्विगुणित कल कर लूँगा, होगा हर कार्य सफल मेरा।

 

स्त्री, धन, पुत्र, मकान, भूमि, पद, मान, मिला जो भी चाहा,

मैं सफल रहा, अपने पथ की, कर सका दूर, आई बाधा ।

मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ, अपने बल पर विश्वास मुझे,

सुख-साज आज जो सुलभ रहे, करना इनका विस्तार मुझे ।

 

कर लेता पूर्ण मनोरथ मैं, जो सधता साधन अपनाता,

पाना होता है लक्ष्य मुझे, मैं ऐन केन उसको पाता ।

जो कमा लिया है द्रव्य आज, इसको भी मुझे बढ़ाना है,

सबसे ऊंचा जो शिखर रहा, उसको ही कल तक पाना है।

 

यह मेरा है, जो हुआ नहीं, कल तक मेरा हो जायेगा,

कर लूँगा इच्छा पूरी मैं, आड़े न कहीं कुछ आयेगा ।

सोचा था पूरा किया उसे, जो सोच रहा, पूरा होगा,

हर काम सहज ही निपटेगा, उसमें न कहीं व्यक्तिक्रम होगा।

 

वे अहंकार से भरे हुए, नाना विचार करते रहते,

जग होगा मेरे पंजे में, ऐसे प्रयत्न करते रहते ।

मैं सफल हुआ हथिया ली है, मैंने उसकी सम्पत्ति सभी,

करना चाहूँ तो कर सकता, उसका गौरव मैं नष्ट अभी । क्रमशः….