‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 180 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 180 वी कड़ी ….

पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’

क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,

श्लोक  (१०)

किस तरह त्यागता देह जीव, किस तरह देह में वह रहता,

किस तरह देह को वह भोगे, जो मायाश्रित सक्रिय रहता ।

इसको न मूढ़मति जान सके, जाने तो केवल ज्ञानीजन,

जो ज्ञान चक्षु से देखें सब, अविकल आत्मा पर परिवर्तन ।

 

चैतन्य दीखता है शरीर, व्यवहार इन्द्रियों के चलते,

विषयोपभोग कर रहा जीव, ऐसा जन-साधारण कहते ।

ऐसा भी कहते अज्ञानी, हो गया अन्त जीवात्मा का,

जब होता निश्चेतन शरीर, व्यापार देह का रुक जाता ।

 

नभ में करते बादल विचरण, पर लगे चन्द्रमा भाग रहा

ऐसा होता है आरोपण, पर चन्द्र जगह पर वहीं रहा ।

उत्पन्न देह से होते गुण, वे साथ देह के मिट जाते,

रे नहीं आत्म सत्ता मरती, जैसा विमूढ़ जन बतलाते ।

 

कर्तव्य भोग ये जन्म मरण, हैं धर्म देह के ही केवल,

यह ज्ञात उन्हें जो जागृत मन, आत्मा निर्लेप रहे निर्मल ।

जो ज्ञानवान वे देह नहीं, आत्मा को देखा करते हैं,

परछाई बस परछाई है, वे ‘सत’ को लेखा करते हैं

 

ज्ञानी जन जाना करते हैं, तन नश्वर है मैं अविनाशी,

मैं जन्म न लेता, मरूँ नहीं, मैं ही हूँ घट-घट का वासी ।

घट हो या मठ हो मिट्टी का, आकाश एक सा मैं उनका,

उत्क्रमण करूँ सीमाओं का, मैं आत्म तत्व बनकर रहता ।

श्लोक   (११)

योगी जन करते यत्न बहुत, तब आत्म ज्ञान पाने पाते,

बिन आत्मज्ञान के तत्व पार्थ, देहान्तर का न समझ पाते ।

आत्मा शरीर से भिन्न रहा, तन बदल-बदल कर भोग करे,

अज्ञानी इसे न देख सके, ज्ञानी इसको प्रत्यक्ष लखे ।

 

बहु यत्न साधते हैं योगी, तब उसको कहीं देख पाते,

पर अन्तकरण अशुद्ध लिए, अज्ञानी उसे न लख पाते ।

हृदय में स्थित आत्मा का, होता केवल उनको दर्शन,

जो उच्च कोटि का साधक हो, चेतस हो, जागृत जिसका मन ।

श्लोक   (१२)

जो तेज समाया दिनकर मैं, कर रहा जगत को आलोकित,

जो तेज चन्द्रमा में बसता, करता है अखिल भुवन भासित ।

जो तेज अग्नि में रहता है, बन रहा चेतना जीवन की,

यह सब मेरा ही तेज समझ, चेतना जग जीवन क्रम की ।

 

जिससे भासित है अखिल भुवन, वह तेज सूर्य का मैं ही हूँ,

चन्दा जो अमृत बरसाता, उसका वह अमृत मैं ही हूँ।

मैं ही हूँ अग्नि तेज अर्जुन, जो जग-जीवन का प्राण बने,

मेरा ही तेज नेत्र में है, मन में है वाणी में उभरे ।

 

यह तेज विश्व के पहिले था, जो अखिल भुवन में व्याप रहा,

यह बना सूर्य का प्राण-तेज, शशि का यह अमृत-सार रहा।

यह तेज अग्नि की शिखा बनी, पावक जो ऊर्ध्वशिखी अर्जन,

यह तेज चेतना अग-जग की, संचालित करती जो जीवन । क्रमशः…