पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’
क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,
श्लोक (६)
कैसा है वह अविनाशी पद, पाते जिसको विनिवृत्तजना,
निर्मान मोह जिसको पाते, पाते अमूढ़ निर्द्वन्द्व मना ।
जित संग दोष जिसको पाते, पाते धारें जो भक्तिभाव,
पा जाता है जो उस पद को, उसको न रहे कोई अभाव ।
मेरा वह धाम स्वदीप्त रहा, कोई न उसे भासित करता,
उसको न प्रकाशित सूर्य करे, उसको न चन्द्र भासित करता ।
उसको न प्रकाशित अग्नि करे, वह रहा प्रकाशित आप्त धाम,
पहुँचा जो जीव न लौटा फिर, ऐसा है मेरा परम धाम
यह मायातीत रहा अर्जुन, मुझसे न भिन्न यह नित्यधाम,
अक्षर अव्यक्त परमोच्च रहा, यह शान्त सनातन सुखद धाम ।
कल्याण रुप, सुरवन्दित यह, ज्ञानी योगी का रहा ध्येय,
यह अननुमेय मन वाणी को, श्रेयों का है यह मूल श्रेय ।
श्लोक (७)
बन्धन से मुक्ति जीव पाना, जो आदि पुरुष की शरण गहे,
जो तजे देह का अहंकार, जो ममता अरु आसक्ति तजे ।
पर बंधे जीव का क्या स्वरुप, मन में उपजे यह जिज्ञासा,
वह कौन जानता जो उसको, उसको कैसे जाना जाता?
जीवात्मा मुझसे भिन्न नहीं, यह नित्य सनातन मुझ जैसा,
ज्यों पुत्र पिता का अंश रहा, वह है स्वरुपतः मुझ जैसा ।
जीवात्मा आकर्षित करता, मन सहित इन्द्रियों को अपनी,
जब देह दूसरी ग्रहण करे, तज देह पूर्व की वह अपनी ।
अर्जुन तन में जो जीव बसे, वह नित्य अंश मेरा ही है,
जिस तरह स्वरुप मेरा चेतन, जीवों का जग चेतन ही है।
तन और इन्द्रियाँ पाँच साथ, हैं कार्य प्रकृति के तनधारी,
जीवात्मा जब बदले शरीर, करके संग सूक्ष्म प्रकृति सारी ।
मेरा ही शाश्वत भिन्न अंश, यह जीव जगत में बद्ध रहा,
यह भिन्न अंश ऐसा जिसमें, आंशिक गुण जीवों का उभरा।
उसको स्वतन्त्रता प्राप्त हुई, उपयोग करे या दुरुपयोग
मन और इन्द्रियों से उसका, चलता रहा संघर्ष घोर ।
जग का अभिव्यक्त सकल जीवन है अंश मात्र चेतना का,
यह ईश्वर का है एक अंश, जिसको संसार कहा जाता ।
ज्यों एक घड़े के अन्दर का, आकाश अंश नभ का होता,
अथवा समष्टि का अंश रहा, जो व्यष्टि रुप भासित होता ।
मेरा अपना ही अंश रहा, जो जग का जीव कहाता है,
जो मेरे जैसा नित्य रहा, पर बन्धन में पड़ जाता है ।
मन और इन्द्रियों में बसता, बसता है साथ प्रकृति के जो,
अपने स्वभाव को भूल बिसर, जग-जालों में फँसता है जो।
गति प्रभु की व्यष्टि रही सारी, जो बड़ा केन्द्र है जीवन का,
आत्मा ऐसा निरुपम नाभिक, जो चाहे जितना बढ़ सकता ।
मन और हृदय से जुड़कर जो, कर सके जगत को आत्मसात,
जो व्यक्ति रहा वह ब्रम्ह रुप, तक कर सकता अपना विकास ।
आत्मा मनुष्य की रचती है, अपरा से पर के मध्य सेतु,
हर बीज वृक्ष का अंश रहा, हर अंश पूर्ण का रहा हेतु ।
आत्मा परमात्मा से न भिन्न, पर जीव साथ सीमित रहती,
माया जो जीव प्रकृति की है, सीमा उसकी, उसको गहती।
शाश्वत महत्व जीवात्मा का, वह सीमा से उठ सकती है,
हिस्सा बनकर परमात्मा का, वह व्यापक हो रह सकती है।
कर सकती वह प्रभु में निवास, अपना अस्तित्व अलग रखकर,
जग को आलोकित कर सकता, जीवात्मा नित जागृत रहकर । क्रमशः…