पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’
क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,
श्लोक (३,४)
वह आत्मज्ञान की असि लेकर, अज्ञान मूल को काट रहा,
जग में रहकर भी जीवन में, होता जिसके वैराग्य जगा ।
विषयों के प्रति लेकर विराग, तजकर अपना देहाभिमान,
जग-तरु के उच्छेदन का वह, साक्षी बनता, बनता प्रमाण ।
निश्चय की पकड़ न हो ढीली, असि को विवेक दे तीव्र धार,
ज्यों शरद आगमन पर होता, अम्बर के कचरे का निखार ।
विस्तार वृक्ष का कट जाता, मृगजल न दिखे जब चाँद खिले,
रवि के आगे क्या अन्धकार, जब आत्म ज्ञान की तेग उठे।
शरणागत होता उस प्रभु की, जिससे निकली जग की धारा,
वह मार्ग खोजता है ज्ञानी, जिस मारग पर चलने वाला ।
वह जगह प्राप्त कर लेता है, कोई न जहाँ से लौटा है,
वह स्त्रोत चेतना का पाता, जो जग को जीवन देता है।
पहिले असि से तरु को काटे, फिर खोजे उस परमेश्वर को,
जिसमें जाकर जो समा गया, आना न हुआ सम्भव उसको ।
उसकी, जिसने यह जगत रचा, उस नारायण की गहे शरण,
दृढ़ निश्चय कर, कर चलो मनन, पालन कर चले निध्यासन ।
मैं शरण आपकी हूँ भगवन, मुझको दिखलाओं राह प्रभो,
स्वीकार करो मेरी पूजा, मेरे भव-बन्धन-पाश हरो ।
सब कुछ तुम ही मेरे स्वामी, तुम सारे जग के हितकारी,
उद्धार करो शरणागत हूँ, अर्पित गति-मति करता सारी ।
श्लोक (५)
जो मोह तजे, जो तजे अहम्, जो असत संग से मुक्त रहे,
निवृत्त कामनाओं से जो, अध्यात्म नित्य का मनन करे ।
सुख-दुःख द्वन्दों से विगत हुआ, जो ज्ञानी शरणागत होता,
पा जाता शाश्वत परम धाम, जीवन उसका सार्थक होता ।
मानापमान का भाव नहीं, जो मोह भाव से रहित हुआ,
आसक्ति दोष जिसने जीता, जो प्रभु चिन्तन में लीन हुआ ।
मन में न कामनायें जिसके, जो निरासक्त निर्द्वन्द्व रहे,
वह पाया मेरी शरण पार्थ, शाश्वत पद उसको प्राप्त रहे ।
सम्मान मोह से हे अर्जुन, जो मुक्त हो जाते हैं,
इच्छायें शान्त हुईं जिनकी, जो अनासक्ति अपनाते हैं ।
परमात्मा का करते चिन्तन, सुख-दुख का द्वैत मिटा लेते,
हो रहे मूढ़ता से विमुक्त, वे ज्ञानी मुझको पा लेते ।
पा लेता है जो आत्म रुप, हो जाती मन की वृत्ति शान्त,
फल चुकने पर तरु केले का, हो जाता है ज्यों जीवनान्त ।
लग जाए आग वृक्ष में तो, उसके पक्षी सब उड़ जाते,
वैराग्य भाव के जगते ही, मन के विकार सब मिट जाते
।
जो जीव हुआ हो आयुक्षीण, तज देती देह साथ उसका,
विषयों की इच्छायें मिटतीं, हो जाता लोप अविद्या का ।
पारस को लोहे का अभाव, सूरज को ज्यों अंधियारे का,
हो जागृत जिसका आत्मरुप, उसको न कहीं दुराव दिखता ।
गंगाजल, गंगा सागर में, मिलकर ज्यों होता एक रुप,
जिसकी अभिलाषा की जाए, ऐसा न बचे कुछ वस्तु रुप ।
सर्वत्र व्याप्त उस नभ को क्या, चलना पड़ता है गाँव-गाँव ?
वह तो पहुंचा ही होता है, बिन चले कहीं भी, बिना पाँव ।
परमाणु धूल के वायु वेग के आगे कब टिकने पाते?
कब नहीं ज्ञान की ज्वाला में अज्ञानांकुर जल मिट जाते ?
जब पूर्ण कला के साथ चन्द्रमा, चमक रहा हो अम्बर में,
क्या कहीं न्यूनता बाकी रह जाती कोई जागृत मन में ? क्रमशः…