‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 176 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 176 वी कड़ी ….

पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’

क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,

श्लोक  (३,४)

इस तरु का असली रुप पार्थ, जग में प्रत्यक्ष नहीं दिखता,

क्या आदि रहा, क्या अन्त रहा, आधार न इसका कुछ मिलता।

अति दृढ़ जड़ का यह वृक्ष कठिन, दृढ़ निश्चय से काटा जाये,

वैराग्य रुप कुठार अस्त्र, हाथों में जब मानव पाये ।

 

तीनों लोकों के जीवन में, हो रहा अविद्या का प्रसार,

बढ़ रही अहमता, ममता भी, अरु रहा वासना का उभार ।

दृढ़ मूलों वाले इस तरु का, प्रारम्भ कहाँ है, अन्त कहाँ,

कुछ भी न पता मिलता इसका, मन के विचार पहुँचे न वहाँ।

 

ये पाश वासना के दुरुह, जब तक न जड़ें काटी जायें,

घटने की बात असम्भव है, ये दिन दूने बढ़ते जायें ।

है कार्य कठिन जड़ का कटना, वह पुष्ट बहुत, बलवान रही,

वह अन्तहीन बाहर-भीतर, तरु के संग चहूँदिशि फैल रही।

 

अच्छेद जड़ों का दुष्कर है, इसलिए धार वैराग्य भाव,

धारे असंग का शस्त्र मनुज, समझे जग का नश्वर स्वभाव ।

यह शस्त्र सबल हाँथो में ले, कर चले मूल का उच्छेदन,

जग के तरु का वैराग्य भावना ही कर सकती है भेदन ।

 

पक्की जड़ वाले पीपल को, तलवार विरक्ति की काट सके,

सपने की दुनिया कहाँ रहे, जब कोई अपनी नींद तजे ।

अज्ञान वृक्ष का मूल रहा, अज्ञान हटे तो वृक्ष कटे,

क्या अन्धकार रह पाता है, जब मन-मंदिर में दीप जले ।

 

संसार वृक्ष यह मिथ्या है, मिथ्या हैं, इसकी सब बातें,

जब तक बहती रहती समीर, लहरें उठतीं करतीं घातें ।

हो जाता है जल-तल प्रशांत, जब वायु शान्त हो जाती है,

क्या बन्ध्या के बच्चे होते, क्या छाँह पकड़ में आती हैं? ।

 

संसारी को यह जगतवृक्ष, “है” जैसा होता है प्रतीत,

ज्यों विविध रंग धारी सुरधुन, या नीलापन आकाश बीच ।

हो गया शक्तिशाली यह तरु, हम आत्मरुप को भूल रहे,

जिसका कोई अस्तित्व नहीं, उसको पकड़े, अज्ञान पगे ।

 

जग के तरु की शाखाओं पर, कब तक होगा यों व्यर्थ भ्रमण?

इसको न काटने पाओगे, निष्फल जायेगा सारा श्रम ।

बन्धन कारक सारे उपाय, बढ़ती ही जायेगी उलझन,

होता जाता है अधिक जटिल, आसक्ति भरा जग का जीवन ।

 

अज्ञान भाव को करो दूर, जागृत कर लो अपना स्वरुप,

यह सर्प नहीं है, रस्सी है, पहिचानो, इसमें हो न चूक ।

कितना भी पीटो सर्प समझ, उसको न मारने पा पाओगे,

वह सर्प नहीं मर सकता है, जब तक न ‘सत्य’लख पाओगे। क्रमशः…