चतुर्दशोऽध्यायः – ‘गुणत्रय विभाग योग’
अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (५)
सारे रुप प्रकाशित मुझसे, मैं अनेकता में हूँ बसता,
जान रहा मैं, जाना जाता, मेरा ज्ञान हृदय में जगता ।
महासर्ग के समय जीव जो, गुण समेत मुझमें हैं बसते,
उन्हें योनि में छोड़ा करता, मैं संयोग प्रकृति से करके ।
जीवात्मा रहता निर्विकार, वह दिव्य रुप होता अर्जुन,
पर प्राकृत जग में बद्ध उसे, भावित करते रहते तिरगुन ।
सत, रज, तम तीन प्रकृति के गुण, तन से बांधे जीवात्मा को,
रहते हैं जैसे पूर्व कर्म, सुख-दुख के भोग मिलें उसको ।
श्लोक (६-७-८)
हे अर्जुन जो है अच्छाई या कहें उसे हम सात्विकता,
आवेश कहें हम रज जिसको, अरु तमस रही जो निष्क्रियता ।
ये गुण उत्पन्न प्रकृति से हैं आत्मा पर है इनका बन्धन,
बंधकर शरीर में रहता जो, नश्वर जग में इनके कारण ।
गुण रहे प्रकृति के आद्य घटक, सब तत्वों के आधार रहे,
ये बंटे हुए हैं तीन सूत्र, जिनसे प्राकृतिक रज्जु बने ।
प्रतिध्वनित चेतना का प्रकाश, आलोकित उससे वह,
सत’है, है बाहृय प्रवृत्ति रजोगुण की, अप्रवृत्ति, प्रमाद तमोगुण है।
जो सात विशुद्ध द्युतिमन्त रहा, है रजस अशुद्धता का प्रवाह,
गतिविधियों को जो जागृत कर, करता नित नूतन अविष्कार ।
जड़ता अथवा निष्क्रियता का, पर्याय तमोगुण कहा गया,
आधार रहा नैतिकता का, जिस पर गुण को है कसा गया।
रक्षक श्री हरि हैं सत्तवगुणी, सृष्टा ब्रम्हा में रजस रहा,
प्रलयंकर शिव में तमस भाव, त्रिगुणात्मक जिनको कहा गया।
जग को स्थिरता देता सत रज सृजनशील गतिविधि धारे,
कर जीर्ण-शीर्ण जग-जीवन को है तमस पतन को जो पाले ।
स्थिति, उत्पत्ति, प्रलय तीनों, तीनों गुण के पर्याय रहे,
आत्मा भूली गुण धर्मो में, अपने स्वरुप को भूल रहे ।
होता जब त्रिगुणातीत बोध, खुल जाते हैं उसके बन्धन,
अपना स्वभाव अदृश्य मुक्त, तब कर लेती है वह धारण ।
वृत्ति विविधता पाती जिससे, अर्जुन उसको गुण कहते हैं,
जन्म प्रकृति से पाते हैं, गुण, सत, रज, तम जो संग रहते हैं।
तीन दशाएँ तन की जैसे, बचपन यौवन और बुढ़ापा,
अन्तकरण वृत्ति में अपनी स्वाभाविक गुण तीनों पाता ।
आत्मा क्षेत्र दशा से अपनी, जीव दशा में जब आती है,
यह शरीर मैं ही हूँ, ऐसे अहंकार में रंग जाती है ।
अन्तकाल पर्यन्त अहं यह, पाले रहती है वह जी में,
चारा पीछे कांटा जैसे, निगले मीन न अन्तर उसमें ।
आत्मा का नित्य स्वभाव उसे, विस्मृत हो जाता है अर्जुन,
बस अहंकार की तृप्ति करें, उसका जीवन उसका तन मन ।
गुण से न प्रकृति के, उठ पाये, वह उनमें ही तल्लीन रहे,
गुण का उन्नायक रुप नहीं, वह रुप अधोगामी पकड़े । क्रमशः….