त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’
अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’
श्लोक (३३)
जैसे आकाश सर्व व्यापी, अति सूक्ष्म न लिप्त रहे अर्जुन,
आत्मा देहों में रहे किन्तु, आत्मा को भावित करे न तन ।
ज्यों जग को भासित करे सूर्य, क्षेत्री से क्षेत्र प्रकाशित है,
वह स्वामी है सारे जग का, हर क्षेत्र उसी से भासित है।
रहता है सूर्य अकेला पर, भुवनों में वह आलोक भरे,
आत्मा से भासमान जीवन, क्षेत्रों में उसकी ज्योति भरे ।
क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के अन्तर को, यदि समझ न पाए तो पूछो,
यह ज्ञान मुक्ति का दाता है, अर्जुन तुम अंगीकार करो ।
जिस तरह अकेला एक सूर्य, ब्रम्हाण्ड प्रकाशित कर देता,
देहावस्थित आत्मा त्यों ही, चेतनता तन में भर देता ।
आलोक चेतना का ही है, संचारित जो करता जीवन,
आत्मा है तो है तन जीवित, बिन आत्मा के, मिट्टी है तन ।
श्लोक (३४)
यह जीव व्यष्टि-चेतन है पर, परमात्मा है समष्टि चेतन,
क्षेत्रज्ञ जीव, क्षेत्रज्ञ विभू, यह क्षेत्र कि भासित है जो तन ।
यह भेद देह अरु देही का, साधन विमुक्ति का बन्धन से,
पाते हैं परम धाम अर्जुन, जो तात्विक ज्ञान-दृष्टि रखते
अर्जुन जो ज्ञान-चक्षुओं से, क्षेत्रज्ञ-क्षेत्र का भेद लखे,
जीवों को मुक्ति मिले कैसे, जो यह जाने जो यह समझे ।
क्षेत्रज्ञ-क्षेत्र का भेद-योग, सर्वोत्तम प्रभु से मिलवाता,
भगवान प्राप्त हो गए जिसे, क्या पाने उसको रह जाता?
।卐। इति क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।卐।