‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 149 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 149 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (२०)

इच्छा अरु बुद्धि करें संगम, पैदा होता है अहंकार,

फल पाने वह प्रेरित करता, बह चले गोचरी तीव्र धार ।

कहते हैं कार्य जिसे अर्जुन, इच्छा मद उसको प्रबल करे,

जागे मन जगा इन्द्रियों को, अपना इच्छित व्यवहार करे ।

 

इसलिए कार्य, कर्त्तव्य, हेतु, इन तीनों की है जननि प्रकृति,

उत्कृर्ष कार्य का करते गुण, कहलाते हैं जो मूल-प्रकृति ।

जो प्रकृति मूल, जो मूल प्रकृति, करती रहती है कर्मभेद,

भोगा करता है भोग पुरुष, यह रहा प्रकृति का विशद खेल ।

 

कार्यों का साधन प्रकृति बने, कर्त्तापन का कारण बनती,

सुख-दुख परिणाम निकलते जो, उनका अनुभव आत्मा करती ।

यह पक्ष वस्तुरुपात्मक है, आत्मा को जो लेता समेट,

जब तक न ज्ञान जागृत होता, वह प्रभु को पाता नहीं भेट

 

इन्द्रियाँ कि देह वह जीवों की करती प्रकृति अभिव्यक्त सदा,

वह हेतु कार्य-कारण की है, सुख-दुख का भोक्ता देह रहा ।

जीवात्मा है आनन्द रुप, लेकिन सुख-दुख का हेतु बने,

कर्मानुसार जो योनि मिली, उस जैसा वह व्यवहार करे ।

 

आकाश, वायु, पावक, जल थल, गुण सहित सभी ये पंचभूत,

दस कार्य प्रकृति के रहे पार्थ, अरु तेरह करण कि अंगभूत ।

ज्ञानेन्द्रिय कर्मेन्द्रिय समेत, मन बुद्धि साथ ही अहंकार,

तेईस तत्व कुल कर पैदा, कर रही प्रकृति जग का प्रसार ।

 

या पाठान्तर से कहें इसे, इन्द्रियाँ पाँच अरु पाँच विषय,

कर्मेन्द्रियों मन गिनती सोलह, ये कार्य प्रकृति के रहे अलग ।

ये कारण नहीं कार्य केवल, कारण होता है अहंकार,

कारण होती है बुद्धि और, तन्मात्राओं का रुपभार ।

 

भोक्ता बन सकती नहीं प्रकृति, वह जड़ होने से निष्क्रिय है,

हो सकता पुरुष नहीं भोक्ता, वह है असंग वह निस्पृह है ।

पर प्रकृति-पुरुष का जुज अनादि, इसलिए पुरुष सुख दुख भोगे,

भोक्तापन वहाँ विलुप्त रहे, जब मुक्त प्रकृति से वह हो ले । क्रमशः….