‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 148 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 148 वी कड़ी ..

               त्रयोदशोऽध्यायः – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’

अध्याय तेरह – ‘शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज है, और इन दोनों में अन्तर’

श्लोक  (१८)

इस तरह क्षेत्र याने शरीर, अरु ज्ञान ज्ञेय क्या बतलाया,

जो रहा जानने योग्य तत्व, उसके स्वरुप को समझाया ।

संक्षेप-सार इतना अर्जुन, जो भक्त रहे वे जान सके,

मेरे स्वरुप को पा जाता, जो भक्त मुझे पहिचान सके ।

 

जो भक्त ध्यान करते प्रभु का, करते पूजन आज्ञा पालन,

तत्पर रहते सेवा करने, प्रभु को अन्तस में कर धारण ।

इनके जैसा वह भक्त रहा, जो ज्ञान मार्ग को अपनाता,

आता जो मेरी शरण पार्थ, निश्शंक परम पद वह पा जाता ।

 

जब भक्त नित्य अन्तर्यामी, प्रभु के कर लेता है दर्शन,

वह दिव्यभाव को प्राप्त करे, दैवी गुण वह करता धारण ।

रहता वह परम स्वतन्त्र मुक्त, छहराये प्रेम-सिन्धु बनकर,

सबमें समत्व की दृष्टि रखे, प्रभुवत बनता ऊँचा उठकर ।

 

सोपान बनाए जाते ज्यों, ऊँचे पर्वत पर चढ़ने को,

या मंच बनाया जाता है, दूरी तक सबको लखने को ।

पर ब्रह्म तत्व जो एक रहा, अवयव कर उसको समझाया,

वह क्षेत्र, ज्ञान, अज्ञान, ज्ञेय, रुपों में बंट सम्मुख आया ।

 

इनका ही वर्णन फिर करने, प्रकरण पर चिन्तन नया करें,

अब प्रकृति-पुरुष के नामों से, यह गूढ़ तत्व फिर से समझें।

अर्जुन ये प्रकृति-पुरुष दोनों, अक्षर अनादि के भेद रहे,

सारे विकार हैं प्रकृतिजन्य, जो पुरुष विकार-वियुक्त रहे।

श्लोक  (१९)

आत्मा का और अनात्मा का, करता हूँ अब तुझको वर्णन,

जो प्रश्न किया उसको ही फिर, अब नये सिरे से सुन अर्जुन ।

है पुरुष एक, इसके आश्रित, रहती है माया, प्रकृति कहें,

जैसे अनादि यह पुरुष रहा, यह प्रकृति इसे, अनादि समझें ।

 

जिस तरह चलें दिन रात साथ, जोड़ी बनकर ये भी चलते,

ऐसी छाया यह प्रकृति रही, जिसको तजकर न पुरुष रहते ।

ज्यों सारभूत कण बीज बढ़े, भूसा भी संग बढ़ता जाये,

यह जुड़वा रुप रहा अर्जुन, कोई न विलग रहने पाये ।

 

तुमको बतलाया क्षेत्र जिसे, अब उसका नाम ‘प्रकृति’ समझो,

क्षेत्रज्ञ जिसे था बतलाया, उसका भी नाम ‘पुरुष’ समझो ।

यह नया निरुपण अलग नहीं, सत्ता वह जो है अविनाशी,

वह ‘पुरुष’ ‘प्रक्रिया’क्रिया की, उसकी ही ‘प्रकृति’ कही जाती ।

 

इन्द्रिय विधान मन, बुद्धि चित्त, जो रहा विकारों का समूह,

सत, रज, तम ये तीनों ही गुण, समुदाय सकल, उसकी यकूह ।

ये प्रकृति विनिर्मित पद सारे, कर्मों का करते उत्पादन,

ये रहे कारणीभूत सकल, करते नव जग का उत्सर्जन ।

 

निर्मित है क्षेत्र प्रकृति द्वारा, जीवात्मा जिसमें बद्ध रहा,

वह देह-पुरुष ही भोक्ता है, क्षेत्रज्ञ एक अतिरिक्त रहा ।

जीवात्मा परमात्मा दोनों, ईश्वर के भिन्न प्रकाश रहे,

वे हैं अनादि, उनके विकार, रे प्रकृति-गुणों से रहे जुड़े

 

हे अर्जुन, प्रकृति-पुरुष दोनों, इनका कोई प्रारंभ नहीं,

जीवत्व जीव का है अनादि, क्या ईश-शक्ति का मूल कहीं?

अपनी अनादिता में दोनों, ये प्रकृति-पुरुष हैं नित समान,

इनमें कोई न निमित्त रहा, कोई आगन्तुक नहीं, जान ।

 

त्रिगुणात्मक रही प्रकृति अर्जुन, कार्यो में है जिसका प्रसार,

उत्पन्न प्रकृति से तीनों गुण, अरु संसृति के सारे विकार ।

गुण रुप प्रकृति के ही जाए, ईश्वर ज्यों नित्य प्रकृति भी है,

क्षेत्रज्ञ पुयष सविशेष रहा, सब क्षेत्रों में जो वह ही है। क्रमशः….