द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’
‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’
श्लोक (१९)
अपनी निन्दा से रुष्ट न जो, गर्वित न बड़ाई को सुनकर,
हो मननशील सन्तुष्ट सदा, अविचल मति जो मुझसे जुड़कर ।
जिसका न नियत कोई निवास, जो नित्य ज्ञान में वास करे,
वह भक्त मुझे अतिप्रिय अर्जुन, आसक्ति रहित जो मुझे भजे।
निन्दास्तुति को समझे समान, वह भेदबुद्धि से मुक्त रहे,
हो मननशील, मुनिभाव रखे, थोड़ें में ही सन्तुष्ट रहे ।
कम से कम में निर्वाह करे, स्वामित्व रहित, अनिकेता हो,
संशय विहीन होकर जिसने, जग में बस मुझको देखा हो ।
वाणी को वश में रखता जो निंदा से होता नहीं दुखी,
होता न प्रशंसा से प्रसन्न, रहता सदैव जो आत्ममुखी ।
सन्तुष्ट रहे, जो प्राप्त उसे, रखता न निवास नियत कोई,
मुझमें मति दृढ़ करके रखता, मैं चाहा करता उसको ही ।
सामाजिक सब कर्तव्य कर, पारवार द्वार से बध नहा,
सम्पूर्ण जगत के लिए जिए, बन्धन बन रहता ठौर नहीं ।
निर्द्वन्द्व रहे, निबंध रहे, कल्याण करे मानवता का,
ऐसा सन्यासी भक्त मुझे, हे अर्जुन अतिशय प्रिय रहता ।
बस्ती हो अथवा जंगल हो, सब जगह रहा उसका विचरण,
अपनाए रहता मुनिचर्या, वह आत्मभाव में रहे मगन ।
कर लेता जो मेरे दर्शन, विश्वास न जिसका डिगे कभी,
अतिशय प्रिय मेरा भक्त रहा, जिसको प्रिय हैं जग जीव सभी ।
ये भगवद् भक्तों के लक्षण, जो श्रेष्ठ रहे शास्त्रानुकूल,
पर भक्तों में भी भेद रचें, गुण और आचरण के दुकूल ।
लक्षण समान सब भक्तों में, इस कारण नहीं मिला करते,
केवल विशेष गुण कुछ होते, जो भक्तों में समान मिलते ।
कुछ गुण सब भक्तों में समान, जो रहे दुहरते बार-बार,
ज्यों हर्ष-शोक या राग-द्वेष, अज्ञान जनित सारे विकार ।
इनका अभाव, आनंद शान्ति, समता के भावों का दर्शन,
जो परम भक्त उनमें दिखता, इन सभी गुणों का सम्वर्धन ।
पर भक्ति मार्ग के अनुयायी, भक्तों में गुण सविशेष रहे,
करुणा मैत्री के भाव अलग, अतिरिक्त रुप से वहाँ जगे ।
जो ज्ञान मार्ग के भक्त रहे, निग्रह उनमें, मन का संयम,
आसक्ति रहित, रत कर्मयोग, कल्याण भरा उनका जीवन
मन और इन्द्रियों का संयम, आसक्ति भाव का त्याग रहा,
कर्मों की तत्परता लेकिन, कर्मो के फल का त्याग रहा ।
ये लक्षण उन भक्तों के हैं, जो कर्मयोग को अपनाते,
आरुढ़ साधना पर रहकर, जो परम पुरुष को पा जाते ।
अपने को प्रभु के कर अर्पण, जो उसका प्रतिनिधि बन जाता,
वह भक्त कर्म जो भी करता, अर्पित वह प्रभु को हो जाता ।
उपराम वृत्ति विकसित होती, आसक्ति न रह जाती मन में,
प्रभु के ही दर्शन करता है, वह भक्त चराचर जीवन में ।
श्लोक (२०)
पथ भक्ति योग का अमृतमय, जो भक्त प्रीति से अपनाते,
जो मान परम गति मुझको ही, सदपथ पर नित चलते जाते ।
मुझमें विशुद्ध रख प्रेमभाव, मेरे प्रति रहें परायण जो,
वे भक्त मुझे अति प्रिय अर्जुन, मुझमें ही लगन लगायें जो ।
जो पुरुष परायण मेरे हो, भक्तों जैसा व्यवहार करे
अमृतमय कोष धर्म का जो, उसका श्रद्धा से पान करे ।
अति प्रेमभाव से अपनाये, निष्काम भाव लेकर मन में,
वे भी हैं मेरे भक्त पार्थ, पा लेते मुझको जीवन में ।
जो सिद्ध भक्त उनका जीवन, अमृतमय अनुकरणीय रहा,
वह भी अमृत का पात्र हुआ, जिसने उनका अनुसरण किया।
उनके प्रति श्रद्धा भाव रखे, उनके प्रति रखे प्रेम मन में,
वे भी प्रिय भक्त रहे मुझको, पा जाते हैं जो जीवन में ।
जो सिद्ध पुरुष उनके लक्षण, आदर्श रहे जिनको अर्जुन,
उनके प्रति प्रेमभाव पूरित, श्रद्धानत रहता जिनका मन ।
सेवन करते जिनके गुण को, वे भी सब भक्त मुझे प्रिय हैं,
अमृतमय सिद्धि भक्ति की पा, वे भक्त हुए अमृतमय हैं ।
प्रेरित होकर जो भक्तों से, मेरी पूजा करने लगते,
श्रद्धा के,प्रेम भावना के, जिनके मन में अंकुर जमते ।
पा जाते भक्ति भाव का सुख, हो जाते जो मुझको अर्पण,
वे सिद्ध साधकों जैसे ही, प्रिय भक्त रहे मेरे अर्जुन ।
जिस भक्ति योग की चर्चा की, उसमें जो सच्ची रुचि रखते,
भक्तों के प्रति श्रद्धा रखते, जो धर्माचरण वहन करते ।
मुझमें रखते गहरी आस्था, सर्वत्र देखते हैं मुझको,
वह भक्त मुझे प्रिय रहता है, मैं मुक्ति दिलाता हूँ उसको ।
जो परम लक्ष्य मुझको मानें, मेरे प्रति हो श्रद्धा अटूट,
अनुसरण ज्ञान का करें सतत, हो दृष्टि सधी जिनकी अचूक ।
धर्मामृत में हो सराबोर, करते जो मेरी भक्ति पार्थ,
वे भक्त मुझे प्रिय होते हैं, वे भक्त साध लेते यथार्थ ।
श्रद्धा जिससे मन प्राण जुड़े, अनुभव को प्राप्त कराते हैं,
श्रद्धा पुकार बन जाती है, प्रभु खिंचे खिंचे आ जाते हैं।
सोते-जगते सब चीजों में, होता है आत्मा का दर्शन
साधक का जीवन हो जाता, उस क्षण परमात्मा के अर्पण।
।卐। इति भक्तियोगो नाम द्वादशोध्यायः ।卐।