‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 137 ..

  • मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 137 वी कड़ी ..

                       द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’

 ‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’

श्लोक  (१३,१४)

जो द्वेष भाव से रहित रहा, निस्वार्थ मित्र सबका जो जन,

सबके प्रति भाव उदार रखे, जो रहा कृपामय सुहृद परम ।

जो अहंकार से रहित रहा, ममता न देह के प्रति जिसकी,

सुख-दुख में जो रहता समान, हो प्रकृति क्षमाशील जिसकी ।

 

मन में जिसके सन्तोष सदा, जो हानि-लाभ में रहता सम,

विचलित न कभी दृढ़ निश्चय से, हो भक्ति भाव से संयत मन ।

मन बुद्धि चित्त जिसने अपना, कर दिया समर्पित मुझको तन,

मेरा अनन्य वह भक्त रहा, मुझको वह अतिशय प्रिय अर्जन ।

 

केवल न द्वेष से हो विमुक्त, पर हेतु रहित हो दयाभाव,

सब भूतों के प्रति मैत्री हो, सर्वत्र भक्त का एक भाव ।

ममता न किसी से रहे उसे, उसकी न देह में अहंकार,

सब जीवों के प्रति सहज प्रेम का बिना प्रयोजन रहे भाव ।

 

सुख से न रहे आसक्ति उसे, दुख से न द्वेष जागे मन में,

सुख दुख में एक समान रहे, हो क्षमाभाव जग-जीवन में ।

सार्थक कर लेता भक्ति योग, ऐसा योगी मुझको पाकर,

सन्तुष्ट प्रसन्न सदा रहता, वह मेरी छाया में आकर ।

 

चैतन्य समान न जिसके मन में रहता कोई भेद भाव,

ज्यों ऊंच-नीच का भार धरा, सहती है लेकर चित उदार ।

जिसके डर-आसन पर दोनों, बैठे होते हैं एक साथ,

परमात्मा के संग जीव बैठ, कर लेता है पूर्णत्व प्राप्त

 

वर्षा न रहे फिर भी समुद्र, पानी से कब न भरा रहता?

मेरा जो प्यारा भक्त रहा, आनंद निमग्न सदा रहता ।

जो निश्चय पर दृढ़ रहता है, अन्तस को कर मुझको अर्पण,

अर्जुन करना पड़ता सदैव मुझको उसके हित का चिन्तन ।

 

जिसकी आत्मा रहती स्वतन्त्र, सबके प्रति मित्र भाव जिसमें,

अविचल धीरज मन करुण-शान्त, विश्वास अडिग धारे उर में।

ममता, न द्वेष, न अहंकार, सुख-दुख में रखे समान भाव,

अर्जुन वह मेरा भक्त रहा, उससे न रहा मेरा दुराव ।

 

वश में जिसके अपना शरीर, मन और इन्द्रियाँ हों वश में,

दृढ़ निश्चय से प्रभु के अनुभव, प्रत्यक्ष किए जिसने जग में।

भगवत् स्वरुप में तन्मय जो, मन बुद्धि किया करता अर्पण,

जो भक्त रहा ऐसा ज्ञानी, वह अतिशय प्रिय मुझको अर्जुन ।

श्लोक  (१५)

जिसके कारण न दुखी कोई, देता न किसी को कष्ट कभी,

पाता न दूसरे से जो दुख, अपना प्रिय जिसको कहें सभी ।

जिसको न प्रभावित हर्ष करे, उद्धेग शोक से दुखी नहीं,

आवेगों से न प्रभावित जो, प्रिय होता मुझको भक्त वही ।

 

उद्वेग न हो, दुख, क्षोभ न हो, जग-जीवों को जिसके कारण,

जो स्वयं नहीं उद्विग्न हुआ, प्रारब्ध जन्य दुख के कारण ।

स्वेच्छा से घटित पदार्थ जन्य, घटनाएँ घटें, भरें विचलन,

पर शान्त रहे, उद्विग्न न हो, अर्जुन विचलन में जिसका मन ।

 

कितने ही विविध विकार रहे, वह हर्ष-शोक में सम रहता,

धन, मान, बड़ाई पाकर भी, जो नहीं हर्ष अनुभव करता ।

होती है उसको दाह नहीं, उसमें न अमर्ष का भाव रहे,

भय का अभाव रहता उसमें, प्रभु को ही वह सर्वत्र लखे ।

 

जिससे न दुखी संसार रहा, संसार न जिसको दुखी करे,

उद्वेग रहित, जो भयविहीन, निर्द्वन्द्व, शुद्ध, निरपेक्ष रहे ।

कोई न द्वेष जिसको व्यापे, जिसका कोई आग्रह न रहा,

विकृत न हुआ चिन्तन जिसका, वह मेरा प्यारा भक्त रहा । क्रमशः….