नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’
अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’
श्लोक (८)
संपूर्ण सृष्टि आधीन रही, मेरी इच्छा से बने मिटे,
इच्छा करता तो बस जाती, इच्छा करता तो सृष्टि मिटे ।
अपरा में पुनि-पुनि कर प्रवेश, मैं बार-बार यह सृष्टि रचूँ,
यह शक्ति अचिन्त्य रही अर्जुन, फिर भी मैं परम असंग रहूँ।
अव्यक्त प्रकृति आलोकित जब होती अव्यक्त आत्मा से,
बहुविध बहुरुप परक प्राणी, उससे नवजन्म ग्रहण करते ।
बीजों में निहित स्वभाव रहा, जो क्रम विकास का तय करता,
आत्मा का रहा नियन्त्रण बस, जग का व्यापार स्वयं चलता।
जिसके जैसे जो कर्म रहे, वैसी वह देह करे धारण,
कर्मों के बीजों द्वारा ही हो रहे योनि का निर्धारण ।
कारण होती है माया ही, जो सृजन कार्य सम्पन्न को,
प्रभु की बन रहे योगमाया, जीवों का बन अज्ञान रहे ।
माया की लीला के कारण, मैं रुप विभिन्न करूँ धारण,
आकार, बनावट, रुप, नाम में बँटे जगत का उत्पादन ।
जामन का पा संसर्ग-दूध जो रहा-दही वह बन जाता,
जग विविध रुप गुण धर्म स्वभावों में बँटकर बढ़ता जाता ।
विस्तार प्रकृति का होता है, मेरे ही कारण हे अर्जुन,
मैं राजा बनकर रहता हूँ, पर करूँ राज्य का नहीं सृजन ।
कुछ भी न कभी श्रम करता हूँ, सब काम प्रजा कर लेती है,
साधे रहती है प्रकृति जिसे, यह ऐसी मेरी खेती है ।
श्लोक (९)
अर्जुन ये कर्म नहीं मुझको बन्धन में डाला करते हैं,
इनसे रहता मैं अनासक्त, ये कर्म स्वयं ही चलते है ।
आत्मा में रह सन्दर्शक बन, देखा करता जग-गतिविधियाँ,
मैं मुक्त रहा, संचालित मेरी प्रकृति करे ये गतिविधियाँ ।
मैं करता हूँ जो कार्य पार्थ, वे मुझे नहीं बन्धनकारी,
इसलिए कि मैं ज्यों उदासीन, गतियाँ चलती रहतीं सारी ।
प्राकृत क्रिया की शक्ति अलग, सम्पादित अपना काम करे,
मैं होकर भी हूँ अनासक्त, जब जग-जीवन व्यापार चले।
लोकोत्तर पक्ष रहा मेरा, जो मुक्त सभी नियमों से है,
मैं घुमा रहा वह चक्र, जगत जिसमें घूमें, जिसमें लय है।
मैं अथक रुप से सक्रिय हूँ, यह विश्व रहा कौतुक मेरा,
कर्माश्रित प्राणी जगत रहा, जिस पर है माया का घेरा ।
चलते जग के व्यापारों को, मैं उदासीन देखा करता,
कर्माश्रित विश्व रहा अर्जुन, मैं बन्धनमुक्त रहा करता ।
कर्तव्य भाव से मुक्त रहे, जो फलासक्ति से रहित रहे,
अर्जुन वह मनुज तत्वज्ञानी, जग में रह बन्धन मुक्त रहे ।
क्या बांध नमक का रोक सके, सागर के बढ़ते पानी को?
अर्जुन कर्मो का विलय जहाँ, बन्धन क्या बांधेंगे उसको?
क्या बहती हुई हवा की गति को, धुंध धुंएँ की रोक सके?
या सूरज के दैदीप्यमान मुख को क्या तम का पटल ढके?
पर्वत का गर्भित द्रव्य-कोष क्या वर्षा से बाधित होता?
चलते रहते सब कर्म प्रकृति के, पर न प्रभावित मैं होता ।
बाधा न प्रकृति के कामों से, मुझको कोई आती अर्जुन,
या कहो कि प्रकृति वही करती, जो चाहा करता मेरा मन ।
समझो मैं उदासीन रहता, कुछ करता नहीं, न करवाता,
बिन बोले कुछ घर में जैसे कोई दीपक जलता जाता ।
यह करो, करो मत वह, जैसी कोई न हिदायत देता है,
बस स्वयं उपस्थित रहता है, गृह कार्यो को गति देता है । क्रमशः…