‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 102 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 102 वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (१०) 

अर्जुन में रहा अधिष्ठाता, मेरी सत्ता से फूर्त-प्रकृति,

रचती है यह संसार सकल, अवलम्बित इस पर जग की गति ।

आधीन प्रकृति के धूम रहा, संसार-चक्र अविराम पार्थ,

उत्पत्ति, विकास पतन जग का, होता है इसके साथ-साथ ।

 

सक्रिय मेरी अपरा माया, संपूर्ण चराचर को रचती,

अध्यक्ष बना रहता हूँ मैं, यह अपना कार्य किया करती।

इसके कारण ही बार-बार, होता रहता है सृष्टि-सृजन,

इसके कारण ही होता है, संहार सृष्टि का हे! अर्जुन ।

 

मेरी देखरेख में मेरी प्रकृति चराचर जगत रचे,

जीवन चक्र जगत का यह उसके द्वारा अविराम चले ।

जग में जो अस्तित्ववान, उन सबमें मेरा वास रहा,

लेकिन अर्जुन मैं रहा परात्पर उदासीन अरु विरत रहा ।

 

जिस तरह निमित बनकर दिनकर, व्यवहार जगत का साध रहा,

मैं उसी तरह कारण बनकर, यह गोचर जग विस्तार रहा ।

माया को अंगीकार करूँ, संयोग सृष्टि का सृजन करे,

उत्पत्ति सकल भूतों की हो, बीजों का विविध रुप उभरे ।

 

उत्पन्न भूत मुझमें लेकिन, वह कार्य, नहीं मैं उनमें हूँ,

अदभुत यह योग रहा मेरा, जग मेरा किन्तु न मैं जग हूँ।

आलोक ज्ञान का जगा पार्थ, सच्चे स्वरुप को पहिचानो,

भूसे में मत दाना खोजो, साक्षात लखो, मत अनुमानो

 

मृगजल से धरती को गीली-करने का श्रम बस व्यर्थ रहे,

प्रतिबिम्बित चांद भला अर्जुन, क्या मीन जाल में कभी फँसे ।

कृति से कृतिकार अलग होता, कृति चाहे जितनी हो महान,

चाहे जितने गुण प्रकट करे, चाहे जितने दे वह प्रमाण ।

(११)

अवतार ग्रहण जब मैं करता, मानव शरीर करता धारण,

ईश्वर कैसे मानव होगा, शंका का मैं बनता कारण ।

उपहास मूर्ख करते मेरा, मुझको न असाधारण मानें,

मैं परमेश्वर, मेरा स्वभाव है दिव्य नहीं इसको जानें ।

 

लेता हूँ जन्म धरा पर जब, पहिचान न पाते अज्ञानी,

क्या धारण देह करेगा वह जो है सब भूतों का स्वामी ।

हम नहीं चेतना का जो रही महत्तर साधन करते हैं,

सीमित आकर्षण जो जग के, हम उनमें अटक भटकते हैं।

 

तनधारी भूत-महेश्वर को, अज्ञानी तुच्छ समझते हैं,

वे परमेश्वर को अपने जैसा साधारण जन गिनते हैं ।

जो परम भाव को नहीं जानते रहे मूढ़मति अज्ञानी,

होते जाते नित पतित, बढ़ाते रहते अपनी हैरानी ।

 

करता जो मेरी भक्ति, बड़ा फल उसको प्राप्त हुआ करता,

छोटे रुपों का भक्त उसे, तुलना में फल छोटा मिलता ।

मानव शरीर में ब्रम्ह बसा, हम उसको देख नहीं पाते,

वास्तविकता समझ नहीं पाते, उलझे आकृति में रह जाते ।

 

हो दोष पीलिया का दृग में, तो चन्दा पीला दिखता है,

ज्वर से मुँह कडुआ अगर हुआ, तो पय भी कडुआ लगता है।

मैं रहा महेश्वर पर उनको, अपने जैसा ही मनुज दिखें,

निर्दोष न अन्तर्दृग जिनके, उनके दृग में कैसे उतरु?

 

उनकी जो मोटी दृष्टि रही, मुझको न जानने देती है,

मृगजल को सुरसरि बतलाती, सुर तरु तज सेंहुड सेती है।

पत्थर को रत्न समझ लेती, परछाई को जीवित काया,

माया के सुंदर रुप सभी जिनमें रहता मन भरमाया ।

 

अपने मन के इन रुपों का कर लेते मुझमें आरोपण,

मैं ईश्वर हूँ पर वैसा हूँ, जैसा गढ़ लेता उनका मन ।

मैं निराकार हूँ पर मुझको पहिनाते वे अपना बाना,

बाना भी जो उनकी रुचि का, जैसा उनके मन ने माना ।

 

बिस्तर पर पड़ा हुआ कोई, सपने में वन शोभा देखे,

वन की शोभा मैं बन जाता, उनके मन मरजी के लेखे ।

मैं नित्य रहा पर वे मुझको, यों जनम मरण में बाँध रहे,

मैं सीमातीत रहा वे मेरी, सारी सीमा लांघ रहे ।

 

यह मनोवृत्ति माया मोहित, भ्रम का कल्पित संसार रचे,

स्थितियाँ लागू कर देती मुझपर, जो उसको उचित दिखे ।

मुझ अन्तर्यामी को गुण-दोषों का वह पुज्ज बना देती,

मैं रहा स्वयंभू स्वतः सिद्ध, वह मेरी मूर्ति बना देती।

 

सर्वत्र नित्य होने पर भी आवाहन और विसर्जन हो,

मैं अजर अमर, पर बाल युवा अरु वृद्ध बना दे वह मुझको ।

मैं रहा अकर्ता पर मुझको, कर्मो का कर्ता बतलाये,

मुझ सर्वव्याप्त को देश, काल, सीमा में सीमित कर जाये ।

 

मुझको सब रहे समान किन्तु, कुछ का हितकारी कहा गया,

दुष्टों का करता मैं विनाश, ऐसा भी मुझको रचा गया ।

अपने विपरीत ज्ञान का मुझ पर करते रहते आरोपण,

मुझको मनुष्य ही समझ रहे होते जग के प्राणी, अर्जुन ।क्रमशः…