‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 69

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 69 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (२७) 

एकाग्र करे जो मन मुझमें, वह योगी सुख उपलब्ध करे,

रहता है उसका चित्त शान्त, मन विकृतियों में नहीं पड़े ।

हो जाता पाप रहित जीवन, वह होता मुक्त रजोगुण से,

बन ‘ब्रह्मभूत’ हो आत्मलीन, होता विभुक्त जग बन्धन से ।

 

सर्वोत्तम सुख पाता योगी, जिसने मन को कर लिया शान्त,

आवेग शान्त कर लिए सभी जिनसे हो आता चित्त भ्रान्त ।

जो हो आया निष्पाप पूर्ण-जो परमात्मा से एक हुआ,

जो हुआ ‘प्रशान्तमना’ योगी, उसका आनन्द न कभी घटा ।

श्लोक (२8) 

योगाभ्यास में तत्पर रह वह आत्मरूप दर्शन करता,

सम्पूर्ण दषणों से विमुक्त, दिव्यानुभूति अनुभव करता ।

सम्पर्क अलौकिक पाकर, वह बन जाता ‘ब्रह्म-संस्पर्शी,

होता है बोध उसे अपना, परमात्म तत्त्व का वह अंशी ।

 

कर दूर मलिनता जो मन की, निष्पाप हुआ करता चिन्तन,

जो योगी अपनी आत्मा का, परमात्मा में करता विलयन ।

वह प्राप्त ब्रह्म को हुआ, करे अनुभव असीम सुख का अर्जुन,

यह आत्यान्तिक सुख है ऐसा, जिसका न हुआ सम्भव वर्णन ।

श्लोक (२९)

योगी के क्या होते लक्षण, आगे यह गुरु ने बतलाया,

वशवर्ती उसका चित्त रहे, इच्छाओं को उसने त्यागा ।

केवल आत्मा के चिन्तन में वह जगते सोते लगा रहे,

वह एक हुआ परमात्मा से,कोई दुख उसको नहीं छुए ।

 

जो व्यक्ति योग साधन द्वारा,पा जाता समरसता सुख की,

वह देखा करता सभी प्राणियों में मेरी आत्मा बसती ।

देखा करता वह आत्मा में मेरी बसते सारे प्राणी,

सब जगह एक ही वस्तु, देखता रहता वह योगी ज्ञानी ।

 

पहिले साधक-योगी करता है पृथक आत्मा को जग से,

जब सिद्धि प्राप्त कर लेता वह फिर आ जुड़ता है उस जग से।

वैराग्य प्राप्त हो जाने पर सर्वत्र प्रेम का भाव रहे,

सब एक तत्व के पिण्ड रहे,कोई न कहीं दुराव रहे

 

सीमित जीवात्मा की आशा, आकांक्षा रुचि सीमित होती,

अपने में और पराये में होकर विभक्त अभिरुचि रहती ।

बलिदान त्याग का भाव सभी के लिए नहीं आने पाता,

परयोगी की जीवात्मा में मानो परमेश्वर बस जाता ।

 

सच्चा योगी देखा करता, मुझको ही सभी प्राणियों में,

अरु प्राणिमात्र उसको दिखते, सबके सब बसते हैं मुझमें ।

यह महापुरुष आत्मज्ञ उसे, मेरा स्वरूप सर्वत्र दिखे,

उस अक्षर को पढ़ता रहता, जिस अक्षर को कोई न लिखे ।

श्लोक (३०)

जो मुझे देखता है सबमें अरु सब कुछ मुझमें देख रहा,

उसको मैं नहीं अदृश्य कभी, याने मैं उसके निकट रहा ।

मुझको भी वह अदृश्य नहीं, उसका मैं ध्यान रखूँ प्रतिक्षण,

उसका मन लीन रहा मुझमें, उसकी सुधि करता मेरा मन

 

सब जगह देखता जो मुझको, देखे हर वस्तु रही मुझमें

उससे न कभी मैं दूर हुआ,वह भी न दूर रहता मुझसे

यह ज्ञान सार्वभौमिकता का, जीवात्मा का विस्तार चरम

करके रखता है आत्मसात, वह तत्व रहा जो ब्रह्म परम

 

अनगिनती व्यक्ति रहे जग में, पर उनका अलग न ब्रह्म रहा,

इसलिए कि जीव जगत सारा, उस एक ब्रह्म में रहा बसा ।

उपजे न अनेकत्व मन में, योगी के वह रहता अभिन्न,

बहुरूप देवताओं के, उसके मन को करते नहीं खिन्न।

 

योगी का रूप रहा मुझसे, ज्यों दीपक का होता प्रकाश,

अवकाश गगन से भिन्न नहीं, पानी से अलग न ज्यों मिठास।

ज्यों बादल होते हैं नभ में नभ ज्यो बादल में होता है.

सब भूतों में त्यों वासुदेव का, देखा जाना होता है।

 

अपरा प्रकृति परमात्मा की, जग के कारण हैं पञ्चभूत,

आकाश करे उत्पन्न वायु,जिससे होता तेजस प्रसूत ।

जलरूप हुआ बादल जिससे, आकाश रहा सबका कारण,

इस सारे प्रकृति चक्र को जो, प्रभु के कारण करता धारण ।

 

सबको उत्पन्न करूँ, सब मेरे कारण करते चेष्टाएँ,

मैं व्याप्त चराचर में अर्जुन, मुझमें ही वे आश्रय पाएँ ।

मैं परमाधार जगत का हूँ, मैं ही हूँ, परमेश्वर जग का,

योगी मुझको साकार रूप में, व्याप्त सकल जग में लखता ।

 

जिसकी जैसी आस्था होती, जिसका जैसा विश्वास रहा,

जिसने जिस भाव मुझे देखा, मैं वैसा उसके मन उतरा।

सातों भुवनों को देख रही जसुमति कान्हा के आनन में,

फिर भी यदुनन्दन खेल रहे बालक बन माँ के आँगन में।

 

मुख में राधव के समा गये,ज्यों काक भुसुण्डि परम योगी,

क्या भीतर उनको नहीं मिला, जो बाहर देख सके योगी ?

साधक की मनोभावना में, ईश्वर साकार हुआ उतरे,

आकार वही धारण करता, जो उसके मन का भाव रहे ! क्रमशः…