‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 55

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 55 वी कड़ी ..

   पञ्चमोऽध्यायः – ‘कर्म-सन्यास योग’

श्लोक (२२) 

इन्द्रिय-सुख भोग, सुनो अर्जुन, संयोग रहे ये विषयों के,

विषयी पुरुषों को सुख देते, पर कारण ये बनते दुख के ।

ये हैं अनित्य,ये आते हैं, जाते जाते दुख दे जाते,

जो पुरुष विवेकी बुद्धिमान, इनके न रमण में रुचि लाते ।

 

जिस तरह भूख से हो व्याकुल, कोई दरिद्र चोकर खाता’

अनजाना आत्मरूप जिसको, वह इन्द्रिय सुख में भरमाता ।

या जैसे प्यासा हरिण रेत में, छाया को पानी समझे,

हो भ्रमित चित्र भागे दौड़े, पर उसको पानी नहीं मिले ।

 

जिनको न आत्म सुख का अनुभव, आनन्द स्वात्म का मिला नहीं,

विषयों में सुख की चाह लिए, खोये विषयों में रहे नही ।

विषयों का सुख ऐसा ही है, जिस तरह चमक है बिजली की,

क्षण भर की केवल चमक रही, पर सघन अँधेरा कर जाती ।

 

मीठा लगता है माहुर पर, आखिर होता है वह विष ही,

विषयों के सुख में मृत्यु बसी, यह भूल गया होता विषयी ।

दे दिया नाम ‘मंगल’ तो क्या जो दोष भौम के मिट जाते?

जो पुरुष विवेकी, विषयों में, इसलिए न लिप्त होने पाते ।

 

वे भलीभाँति यह जान रहे, चूहे पर है फन की छाया,

चारा जो गल मे फँसा हुआ, जिसने मछली को ललचाया ।

यह विषय भोग अच्छा लगता, जैसे मेढक को कीच रुचे,

या रोटी के लालच में ज्यों, चूहे पिंजड़ों में स्वयं फँसे ।

 

विषयोपभोग के दुख को ही, विषयी अज्ञानी सुख जाने,

माया का यही पसारा है, जो झूठ उसे वह सच माने ।

लेकिन विरागमय पुरुषों को, विष जैसा विषयभोग लगता,

रहते अलिप्त वे विषयों से, आसक्त न उन्हें विषय करता ।

श्लोक (२३)

अर्जुन, दुर्लभ मानव-तन पा, जीवन में हो जो सावधान,

विषयों के वेग सहन करता, दे काम-क्रोध को जो लगाम ।

वह साधक पुरुष सांख्य योगी, होता है सुख का अधिकारी,

यदि चूक गया इस जीवन में, तो होती उसे हानि भारी ।

 

ज्ञानी में विषय-वासना का, रहता अभाव निश्चित अर्जुन,

रहकर शरीर में जो, शरीर को बना रखे सुख का साधन ।

अनुभव करता रहता वह सुख बसता उसमें अन्तर्यामी,

हो जाता एक रूप साधक, परमात्मा की कर अगुआनी ।

 

जैसे पानी में पानी मिल केवल पानी ही रह जाता,

या वायु विलीन जहाँ होती, आकाश अकेला रह जाता ।

हो जाता द्वैत समाप्त जहाँ, एकत्व भाव ही शेष रहे,

वह रही एकता कैसी सुखमय, उसके सुख को कौन कहे?

 

छूटे यह तन इसके पहिले, आवेगों का जो त्याग करे,

जो करे न क्रोध इच्छाओ का, जो आगे बढ़ प्रतिरोध करे ।

वह योगी है,वह सुखी रहा, आनन्द आन्तरिक पाता है,

पृथ्वी पर रहकर वह, जीवन सुख पूर्वक सही बिताता है

श्लोक (२४)

जो विषय भोग सांसारिक तज, सुख आत्मरूप में पाता है,

आत्मा में ही नित रमण करे, जो आत्माराम कहाता है ।

एकीकृत उसके भाव रहे, परमात्मा से ऐसा योगी,

है ब्रह्मनिष्ठ, है ब्रह्म भूत अरु अंतर्योतित है वह ही ।

 

निर्वाण नहीं यह शून्य भाव, यह रहा बोध आत्माधिकार,

यह दशा सकारात्मक ऐसी, जिसमें न रहा कोई विकार । क्रमशः…