मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 36 वी कड़ी ..
तृतीयोऽध्यायः- ‘कर्म योग’
‘कर्म योग या कार्य की पध्दति’
श्लोक (११)
• होम हवन कर देवों को, सम्पुष्ट करो, सन्तुष्ट करो,
तुम देवों के कृपापात्र बनकर, तुम अपना नित उत्कर्ष करो ।
देवों का हित तुम साधोगे, हित देव तुम्हारा साधेंगे,
परिपूरक बने परस्पर दोनों, परम ध्येय को पायेंगे ।
आचरण स्वधर्म का करने से, देवता प्रसन्न तुम पर होंगे,
इच्छायें होंगी पूर्ण सभी, वे तुम्हें सुरक्षा, बल देंगे ।
देवों का भी कर्तव्य रहा, वे तुम्हें समुन्नत किए चलें,
वे अपने साथ साथ तुमको, उन्नति के पथ पर लिए चलें ।
ईश्वर को भजा करोगे तो, ईश्वर कृपालु तुम पर होगा,
पालन स्वधर्म का करने से, कल्याण परम जग का होगा।
सेवा में होगी महासिद्धि, आज्ञा का पालन करने को,
जैसे बसन्त के आने पर, वन-शोभा उमड़े स्वागत को ।
श्लोक (१२)
तुम जहाँ रहोगे, ईश्वर की अनुकम्पा बरसेगी तुम पर,
सच, तुम्हें खोजता आयेगा, ईश्वर ही स्वयं तुम्हारे घर ।
यदि निष्ठापूर्वक तुम, स्वधर्म का पालन करते जाओगे,
तो ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो प्राप्त न तुम कर पाओगे ।
पर पाकर तुम ऐश्वर्य सम्पदा, अगर भुला दोगे उसको,
उस, ईश्वर को जिसने, अकूत सम्पदा प्रदान कर दी तुमको ।
आचरण स्वधर्म का अगर भुला दोगे, न भजोगे ईश्वर को,
आहुति न अग्नि में डालोगे, तज दोगे वान्छित कर्मों को।
आदर-सत्कार भूला दोगे, भूलोगे देवों का पूजन,
भूलोगे गर्व गरूरी में, विषयों का बस करके चिन्तन ।
तो संकट तुम्हें घेर लेंगे, अपनी सम्पत्ति गँवाओगे,
यदि पालन नहीं स्वधर्म किया, तो कभी नहीं सुख पाओगे।
ज्यों आयु पूर्ण हो जाने पर रहता न जीव में प्राण शेष,
या लक्ष्मी शेष न रहने पर, दारिद्र्य वहाँ बढ़ता विशेष
आश्रय सुख का वह नहीं रहा, हो गया लुप्त जिसका स्वधर्म.
सारी उन्नति सारे सुख का, ब्रह्माजी कहते यही मर्म
घिर आता गहन अँधेरा ज्यों, जब ज्योति दीप की बुझ जाती,
दारिद्रय, दोष, दुख की रजनी, निस्तेज मनुज मन पर छाती।
फिर नहीं सूझता फिर उसको, वह रहे भटकता दृष्टि हीन,
कल्पों पर कल्प बीत जाते, उद्धार न पाता मति-मलीन ।
सम्बोधित करके प्रजाजनों को ब्रह्मदेव ने बतलाया,
देवों को तुम भी लौटाओ, जो देवों से तुमने पाया ।
बिन यजन किए उपभोग करे, वह हुआ न उसका अधिकारी,
अर्पण न हव्य का करता जो, दुख पाता वह जन संसारी।
उसकी स्वतन्त्रता छिन जाती, पालन स्वधर्म का जो न करे,
देवों के दिए हुए सुख का, जो बिन लौटाये भोग करे ।
वह चोर रहा यमदेव उसे, देते हैं दण्ड कष्टकारी,
ज्यों भूत घेर लेते मरघट, संकट से बिरती वय-सारी ।
हे प्रजाजनों अपना स्वधर्म, मत भूलो, ब्रह्म देव कहते,
वे परम सुखी जो विहित कर्म करने अपने तत्पर रहते ।
पानी से विलग हुई मछली, की मृत्यु तुरत हो जाती है,
क्या दशा स्वधर्म से विलग, मनुज की उससे मेल न खाती है?
सम्पुष्ट यज्ञ हुए देवगण, देंगे इच्छित फल तुमको,
निष्काम भाव से करना होता है स्वधर्म पालन उनको ।
लेकिन जो पुरुष, बिना उनको लौटाये फल का भोग करे,
वह चोर रहा केवल, अपने ही लिए कि जो उपयोग करे ।
इसलिए कि बिन कर्तव्य किए, भोगों का मनुज न अधिकारी,
कर्तव्य विमुख जो मनुज रहा,वह रहा चोर, पापाचारी । क्रमशः…