‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 194 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 194 वी कड़ी ….

           षोडशोऽध्यायः – ‘देवासुर सम्पत्ति विभाग योग’

    अध्याय सोलह – ‘दैवीय और आसूरी मन का स्वभाव’

 परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्रुणों और सदाचारों का; उन्हें जानकर धारण करने के लिए दैवी सम्पदा का वर्णन असुरों के दुर्गुण और दुराचारों का वर्णन । उन्हें जानकर त्याग करने के लिए आसुरी सम्पदा के नाम से वर्णन ।

श्लोक  (१६) 

आकाश कुसुम की ले सुवास, वे रहें भटकते जीवन में,

अपनी न तृषा कर सकें शान्त, धारे मरीचिका वे मन में ।

इच्छायें लिए अधूरी वे, पाते हैं घोर नरक मरकर,

उससे दूना दुख पाते हैं, जो दुख देते जग में जीकर ।

 

बहुभाँति विकल्प विविध रचते, चिन्ता में डूबे रहें असुर,

रच मोह जाल फँसते उसमें, जिससे न उबरते कभी असुर ।

वे भ्रमित चित्त विषयानुरक्त, विषयों का ही करते सेवन,

अपने कर्मो का फल पाते, रुक पाता उनका नहीं पतन

श्लोक   (१७)

मानें अपने को सर्वश्रेष्ठ, व्यवहार अशिष्ट करें सबसे,

धन और मान के मदमाते, वे अन्धे कुछ न देख सकते ।

करते पूजन, वे यज्ञ रचें, पाखण्ड बहुत वे फैलायें,

विधि-विहित न कोई काम करें, प्रतिकूल विधानों के जायें।

 

वे नाम मात्र के यज्ञ करें, विधि या विधान का नाम नहीं,

है यज्ञ कहीं, है धर्म कहीं, है ध्यान कहीं, है दृष्टि कहीं ।

केवल उनका पाखण्डवाद, धन का अथवा बल का दर्शन,

झूठे उनके व्यवहार सभी, झूठे उनके सब आयोजन ।

 

मदमते प्रलाप संलाप करें, पूरे न मनोरथ कर पाते,

रहता है अन्तस छिन्न-भिन्न, कीटाणु पाप के उभराते ।

होतीं प्रारंभ यन्त्रणायें, जिनका न कहीं पर अन्त दिखे,

अपना दुर्भाग्य हाथ से ही, जो असुर रहा वह स्वयं लिखे ।

 

सारे आयोजन के पीछे, अपनी आकांक्षा छिपा रखें,

रहती है उनकी ठग विद्या, फल चाह रहे होते सद्या ।

धार्मिक दयालु वे बन जाते, बनते उदार दाता दानी,

क्या-क्या न स्वांग वे रच लेते, भीतर भीतर वे अभिमानी ।

 

संवेदनशील उदार बनें, वे हृदयहीन वे लोलुप जन,

जन-सेवा का पकड़ें परचम, वे स्वार्थरथी वे निर्दयमन ।

रक्षक बनकर आगे आयें, अवसर पा निगलें वे सदेह,

बहुभांति लुभाएँ जन-मन को, वे देहलिप्त दिखकर विदेह

 

अपने को पूज्य उच्च मानें, सब बातों में सबसे बढ़कर,

लेकिन विनम्रता दिखलायें, वे नत सिर हो, वे झुक झुक कर ।

दर्शायें दीन भाव अपना, अधिकाधिक वैभव पाने को,

कुछ भी पाखण्ड करें धारण, दुनिया का मन बहकाने को । क्रमशः….