‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 179 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 179 वी कड़ी ….

पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’

क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,

श्लोक  (७)

जीवात्मा केन्द्र ब्रह्म का बन, प्रगटाता दिव्य चेतना को,

अपने जिस जग में बसता वह, भासित करता है उस जग को।

अपनी निजता को विकसित कर, कर पाता वह अपना विकास,

उससे निस्रत होने लगता है, दिव्य चेतना का प्रकाश ।

 

प्रत्येक व्यक्ति जग-जीवन का, है किरण एक परमात्मा की,

कर सकती जो रुपान्तरण, वह किरण शक्ति ऐसी रखती ।

हर व्यक्ति जुड़ा परमात्मा से, कर सकता है उपलब्ध उसे,

जग से असंग कर दोष दूर, जो खोज करे, प्रभु मिलें उसे ।

 

संसर्ग वायु का पाकर ज्यों, सागर में लहरें उठती हैं,

सागर का ही हैं अंग मगर, अस्तित्व स्वयं का रखती हैं।

ले साथ प्रकृति का आत्म ब्रह्म, जग-जीवन का करता प्रसार,

जीवों से संकुल जग-सारा, लहरों जैसा करता विहार ।

 

इस जीव लोक के जीवों में, अर्जुन मेरी अभिव्यक्ति रही,

माया के व्यापारों तक ही, सीमित जीवों की दृष्टि रही ।

मरने-जीने के बीच बसा, इसको संसार कहा जाता,

इस बन्धन में बँधकर आत्मा, अस्तित्व निराला दिखलाता ।

 

श्रोतादि इन्द्रियों सहित जीव, कर अपने मन का आकर्षण,

जीवन तजकर नवजीवन का, करता रहता है नया वरण ।

क्रम इसी तरह चलता रहता, बसते रहते हैं लोक नये,

अपने स्वरुप को भूल जीव, माया के रुपों में उलझे ।

श्लोक   (८)

ज्यों गन्धवाह ले उड़े, फूलों से फूल वहीं छूटें,

त्यों जीव देह का स्वामी जो, उड़ जाता देह वहीं छूटे।

पर सूक्ष्म-स्थूल इन्द्रियों को, कर ग्रहण साथ में ले जाता,

तन एक त्याग प्राकृत जग का, वह नव शरीर को अपनाता ।

 

अस्तित्ववान जग में अर्जुन, जीवात्माएँ भटका करतीं,

गुणधर्म सूक्ष्म अपने संग ले, वे नये वेष धारण करतीं ।

ज्यों हवा फूल की ले सुगन्ध, सारे जग में कर चले भ्रमण,

ले सूक्ष्म शरीर साथ अपने, जीवात्मा धार चले नव तन ।

 

स्वामी शरीर का जीवात्मा, अपने शरीर का त्याग करे,

मन सहित इन्द्रियों को लेकर, वह सूक्ष्म वायु होकर विहरे ।

ज्यों वायु सुमन की ले सुगन्ध, उड़ती है नभ में ओर छोर,

तन ग्रहण करे नूतन अपना, गुण धर्म सहित होकर विभोर ।

 

भौतिक शरीर को छोड़ एक, दूजे शरीर तक की यात्रा,

करता है जीव साथ लेकर, पहिले शरीर की तन्मात्रा ।

ज्यों वायु गन्ध को एक जगह, से जगह दूसरी पहुँचाती

जीवात्मा सूक्ष्म शरीर साथ, फिर नई देह अपनी पाती ।

 

जब जीव त्यागता है तन को, वह नहीं अकेला जाता है,

मन और इन्द्रियों का समूह, वह अपने सँग ले जाता है।

तब ही उसका कर्त्तत्व दिखे, तब ही भोकतृत्व दिखे उसका,

सामान्य दशा में देहराज का, नहीं विशद परिचय मिलता

श्लोक   (९)

वह सूक्ष्म देह धारण करता, नूतन शरीर के संस्कार,

हो पुनर्जन्म, नव देह मिले, संघर्ष कि ‘कर्षणः हो कराल ।

तब देह दूसरी धारण कर, इन्द्रिय विषयों का भोग करे,

यह जीव पुराने-नये बीच संस्कारों से संघर्ष करे ।

 

अन्तस को और इन्द्रियों को, आश्रय कर लेता जीवात्मा,

कर्ता-भोक्ता बन जाता है, सविकारी बनता जीवात्मा ।

वह शब्द परस, रस, रुप, गन्ध, मन सहित भोग करता सबका,

भौतिक जीवन सुख-भोगों में, आसक्ति बढ़ाता रम रहता ।

 

कब छोड़ा करता यह शरीर, या करता है तन में निवास,

या विषयों का उपभोग करे, किस तरह हुआ इसका विकास ।

कोई न देख पाता इसको मतिमूढ़ न इसको समझ सके,

देखे केवल उसको ज्ञानी, जिसके हो ज्ञान-कपाट खुले ।

 

तजकर शरीर को कहाँ गया, किस जगह देह में बसता है,

किस भांति विषय-उपभोग करे, किस तरह गुणों में रमता है।

इसको न जानते अज्ञानी, केवल ज्ञानी ही जान सके,

जिसमें विवेक हो, चिन्तन हो, जो ज्ञान नेत्र को खुला रखे ।

 

जब जीव देह धारण करता, वह देह जीव की हो जाती,

मन और इन्द्रियाँ जीवभूत, उसमें अपना विकास पाती ।

अविचारी को व्यवहार सभी, आत्मा के लगते हैं, अर्जुन,

जिनको सम्पादित प्रकृति करे, चालित जिनको करते हैं गुण।

 

आत्मा ने जन्म लिया कहते, आत्मा विषयों का भोग करे,

आत्मा ही देह त्याग करता, आत्मा ही सारे कर्म करे ।

पर आत्मा जन्म न लेता है, आत्मा का होता मरण नहीं,

क्या विषयभोग करती आत्मा, क्या कर्म-फलों से रही बंधी? । क्रमशः…