‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 17

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ 

ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 1७ वी कड़ी ..

        द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (१४)

कौन्तेय इन्द्रियाँ बना रहीं, विषयोन्मुख मानव के मन को,

विषयों के सेवन में पड़कर, वह भोगा करता सुख दुख को ।

आसक्ति मोह उपजाती है, अन्तस विषयी का ढँक जाता,

निश्चित न विषय रहते उसके, इस कारण वह सुख-दुख पाता ।

 

ये विषय एक से रहे नहीं, पड़ता रहता इनका प्रभाव,

सुख का अथवा दुख का भान, ये करवाते समयानुसार ।

निन्दा सुनकर विद्वेष जगे, गुण गान जगाये समाधान,

है विषय यहाँ केवल सुनना, ज्ञानेन्द्रिय जिसकी रहा कान।

 

व्यापक अर्थी है शब्द विषय, हर इन्द्रिय का है विषय अलग,

जो रूप विषय बन जाता है, उसका प्रभाव है अलग-अलग ।

दिखता है रूप कभी भीषण, या कभी दीखता वह सुन्दर,

भीषण भय या दुख उपजाता, सुन्दर जो लगता है सुखकर।

 

है विषय त्वचा का परस ज्ञान, कोमल कठोर जिसके विभेद,

सम्पर्क कभी सुख उपजाये, उपजाये मन में कभी खेद ।

जो विषय नासिका का वह भी, दुर्वास बने अथवा सुवास,

रसना का रस जो विषय रहा, बन जाये सुख या बने त्रास ।

 

यह बात विशेष इन्द्रियों की, इनको प्रिय अपना विषय रहा,

उसके सिवाय सारे जग में, उनको अच्छा कुछ नहीं लगा ।

वशवर्ती रहे इन्द्रियों के अच्छा न शीत या घाम उन्हें,

बाधा लगती हर अच्छाई केवल अपने से काम उन्हें ।

 

संसर्ग विषय का ही अर्जुन, मौलिक स्वरुप को भ्रष्ट करे,

आधीन इन्द्रियों के होकर, मानव जीवन को नष्ट करे।

जग का प्रपंच द्वन्द्वात्मक है, हे पार्थ इसे तुम सहन करो,

जग के सुख-दुख सब झूठे है, यह सोचो, इसको वहन करो ।

 

कैसे ये विषय रहे अर्जुन, इसका विचार यदि कर लें हम,

तो पायेंगे ये मृगजाल हैं, या सपने जिन्हें सजाये हम।

इनका जितना ऐश्वर्य रहा, सबका सब झूठा या नकली,

ये हैं अनित्य इसको समझो, पाओ अपना स्वरुप असली।

श्लोक (१५)

हे पुरुषश्रेष्ठ जो पुरुष, नहीं आधीन रहा इन विषयों के,

अरु सुख-दुख दोनों जीवन में, जिसने अपने समान समझे ।

वह गर्भवास के संकट से, पा जाता मुक्ति सुनो अर्जुन,

अविनाशी पद के योग्य रहा, उस धीर पुरुष का जग जीवन ।

श्लोक (१६)

कौन्तेय सुनो मैं बात एक, ऐसी तुमको बतलाता हूँ,

जिससे जन परिचित मनन शील, वह तत्वपरक दुहराता हूँ ।

सर्वत्र व्याप्त जो जग में हैं, वह गूढ़ आत्म चैतन्य रहा,

करते हैं उसको ग्रहण सन्त, जिनको यथार्थ का बोध रहा ।

 

पानी में मिलकर दूध पार्थ जिस तरह एक हो जाता है,

पर राजहंस में गुण ऐसा वह उसे अलग कर पाता है ।

अथवा सुनार भट्टी में रख, पहिले सोना पिघलाता है,

फिर वह अशुद्ध सोने में से, जो शुद्ध स्वर्ण पा जाता है ।

 

या दही बिलोकर मथनी से लेती ग्वालिन मक्खन निकाल,

या भूसे को कर विलग प्राप्त करता किसान जैसे अनाज ।

सत, असत भरे जीवन में से सत को पा जाता ज्ञानवान,

ज्ञानी की दृष्टि सधी रहती, इन दोनों तत्वों पर समान ।

सारे प्रपंच होते समाप्त, करने विचार जो शेष रहे,

वह तत्वज्ञान, वह ब्रह्मरूप, चिन्तन में वही सहज उतरे ।

जो है अनित्य उसमें, आस्था रखता ही नहीं विचारवान,

जो असत् रहा सो है अनित्य, जो सत है वह नित विद्यमान ।

 

जो असत् वस्तु वह नाशवान, उसकी न रही कोई सत्ता,

सत का पर नहीं अभाव रहा, यह ज्ञान तत्वदर्शी रखता । श्लोक (१७) क्रमशः ….