‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..18

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 18 वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (१७)

जो है असारता वही भ्रान्ति, है सार नित्य नित वर्द्धमान,

त्रिभुवन का है विस्तार वहाँ, है नहीं क्षरण का वहाँ काम ।

वह रहा सर्वव्यापी सदैव, वह जन्म-मृत्यु से परे रहा,

चाहे कोई विनाश करना, ऐसा कोई न समर्थ रहा ।

(१८)

जड़वर्ग सभी परिव्याप्त रहा, परमात्म तत्व चेतन से ही,

देहात्मा एक रहा सबका, भाषित शरीर यह उससे ही ।

यह देह प्रकृतित: नाशवान, हे अर्जुन तुम इसको समझो,

अपने मन का भ्रम दूर करो, इसलिए उठो तुम युद्ध करो।

(१९)

मत समझ, मारने वाला मैं, कौरव हैं वे मरने वाले,

भ्रमवश ही ऐसा समझ रहे, यह दर्प व्यर्थ करने वाले ।

लेकिन विचार करने पर तुम, पाओगे यह न यथार्थ रहा,

यह नहीं किसी को मार रहा, या कोई इसको मार रहा

(२०)

जिस तरह स्वप्न के विषय, स्वप्न में सत्य प्रतीत हुआ करते,

पर वही स्वप्न जब नींद खुले, होते विलीन झूठे लगते ।

ऐसी ही यह सब माया है, जो मोहित किये हुए तुमको,

छाया पर शस्त्र चलाकर, क्या घायल कर सकते तुम तन को?.

 

पानी से भरा हुआ बर्तन, यदि उलट उसे खाली कर दें,

प्रतिबिम्ब सूर्य का बनता था, उसका बनना समाप्त कर दें।

तो क्या विनष्ट हो गया सूर्य ? उसका अस्तित्व अबाध रहा,

या घर में ज्यों आकाश बसा, घर मिटने पर भी वही रहा ।

 

आ जाता मूल रुप में वह, जो घर में था घर के जैसा,

मिटता त्यों रहता है शरीर पर आत्मा नष्ट नहीं होता ।

यह रहा अजन्मा सत-चेतन, यह सदा एक रस रहता है,

यह एक रुप नित अविनाशी, यह नहीं देह संग मरता है।

 

यह मुक्त विकारों से रहता, इसकी कोई उत्पत्ति नहीं,

यह स्वाभाविक सत रुप रहा, इसकी होती है वृद्धि नहीं ।

यह रहा अपरिणामी अवृद्ध, इसमें रहता क्षय का अभाव,

जीता-मरता रहता शरीर, इसमें विनाश का है अभाव ।

(२१)

हे पार्थ पुरुष जो आत्मा को, उसके स्वरुप में पहिचाने,

वह अविनाशी वह नित्य रहा, अज अव्यय उसको वह माने

वह कैसे किसको मरवाये या कैसे किसको मार सके,

दीखे उसको बस आत्मतत्व, जो अजर रहे जो अमर रहे ।

 

आत्मा पर मत थोपो अर्जुन, तुम जन्म-मृत्यु का अपना भ्रम,

आत्मा तो नित्य अजन्मा है, जीना मरना शरीर का क्रम ।

इसलिए किसी के लिए, शोक करना कदापि है उचित नहीं,

अब भी व्यामोहित किए हुए है, क्या तुमको अविवेक कहीं ? श्लोक  (२२) क्रमशः ….