‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 120 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 120 वी कड़ी ..

                   एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’

           अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’

श्लोक   (५)

श्री भगवानुवाच :-

भगवन कृष्ण बोले अर्जुन, लो विश्व रुप मेरा देखो,

नाना आकृतियों, वर्णों में मेरी, विभूतियों को लेखो ।

सागर समान विस्तृत फैलीं, बिन ओर छोर के अन्तहीन,

दिव्या कृतियाँ सौ-सौ हजार, कोई विशाल कोई महीन

 

इस विश्वरुप में है अजुन, है रुप हजारों एक जगह,

ये नानाविध वर्णाकृति के, ये अचरज भरे अलौकिक सब ।

देवों दनुजों के रुप विविध, नाना जीवों के रुप विपुल,

आकार प्रकार निराले सब, गुण, वर्ग, वर्ण के भेद सकल ।

 

कुछ छोटे हैं, कुछ बड़े यहाँ, कुछ क्षीण रहे, कुछ भीमकाय,

कुछ साधारण, कुछ अति दुर्बल, कुछ सबल रहे, कुछ अति विशाल ।

कुछ क्रोधी, कुछ सन्तुष्ट रहे, कुछ अभिमानी, कुछ उदासीन,

कुछ मिलनसार, सक्रिय दयालु, कुछ क्रूर व्यसनरत मतिमलीन ।

 

कुछ प्रेम युक्त, कुछ कपटी मन, कुछ पालक कुछ संहारक भी,

कुछ सेवारत, कुछ हैं सशस्त्र, कुछ चोर, प्रपंच प्रचारक भी ।

कुछ रुपवान, कुछ रुपहीन, कुछ काले, कुछ पीले गोरे

, कितने ही वर्ग, वर्ण रंग के, बहु भांति न रुप रहे थोरे ।

 

कुछ पुष्ट वदन, कुछ क्षीण काय, कुछ आकर्षक, कुछ अतिकुरुप,

बेडौल डौल बहु आकृतियाँ, जितने जग के सब विविध रुप ।

इस विश्व रुप में हे अर्जुन, देखो तुम सब कुछ पाओगे,

जितना भी जग है दृश्यमान, उस सबका दर्शन पाओगे ।

श्लोक  (६)

हे भारत, देख यहाँ मुझमें, सब आदित्यों का वास रहा,

सुत बारह देख अतिति के तू, आठों वसुओं का वास रहा ।

ग्यारह रुद्रों को देख पार्थ, बसते मुझमें सब देव देख,

अन्यान्य अनेक विचित्र रुप, देखे न सुने, वे सभी देख ।

 

तेरे मन में जो इच्छा हो, वह सब तू देखेगा मुझमें,

चाहेगा और देखना जो, तत्क्षण वह दीखेगा मुझमें ।

जो कुछ भविष्य के बारे में, तू चाहे, देखेगा अर्जुन,

सम्पूर्ण जगत यह जड़-चेतन, हो रहा दृष्टिगोचर अर्जुन ।

 

सम्पूर्ण जगत से अलग भाव, कोई जो मन में हो तेरे,

हे अर्जुन देख सकेगा सब, इस विश्व रुप में तू मेरे ।

जिनको न वेद भी देख सके, अल्पायु काल जिनके आगे,

ऐसे अपार, ऐसे विशाल, बहुरुप प्रकट तेरे आगे ।

श्लोक  (७)

हो सावधान देखो अर्जुन, जड़-जंगम जगत जीवधारी,

मेरे शरीर के एक अंश में, उभर रही यह कृति सारी ।

इस विश्व रुप के अवयव में, ब्रहाण्ड घूमते हैं अनेक,

जो परे विश्व के रहा पार्थ, वह भी सब अंकित यहाँ देख ।

 

विश्व रुप के रोमकूप में, सकल सृष्टि का सृजन रहा,

ज्यों असंख्य अंकुरित तृणों का, सुरतरु नीचे वास रहा ।

पृथ्वी के परमाणु तैरते, ज्यों प्रकाश में दिखते हैं,

विश्वरुप में ब्रहाण्डों के पिण्ड, कणों से लगते हैं ।

 

लेकिन यह क्या, आँखों में तेरी, बनी हुई है उत्कण्ठा,

यह विश्व रुप क्या, तेरी जिज्ञासा को, शान्त नहीं करता?

हाँ चर्मचक्षुओं से इसका देखा जाना न रहा सम्भव,

करता तुझको सामर्थ्यवान, करता तेरा भव से उदभव

श्लोक  (८)

तू अपने चर्मचक्षुओं से, मुझको न देखने पायेगा,

इसलिए दे रहा दिव्य दृष्टि, इससे तू सब लख पायेगा ।

मेरा ऐश्वर्य अपार इसे, देखेगा दिव्य दृष्टि पाकर,

मेरी जो योगशक्ति उसको, समझेगा दिव्य दृष्टि पाकर ।

 

मानवीय आंख तो यह केवल, बाहरी रुपों को देख सके,

हो अन्तर्दृष्टि प्राप्त जिसको, वह आन्तरिक जग को लेख सके ।

यह आँख माँस की बनी हुई, इसकी अपनी सीमित क्षमता,

पर दिव्य दृष्टि दैवीय रही, उससे न रहस्य कोई छिपता ।

 

करती उद्घाटित सत्य विगत, आगत का भेद न रह पाता,

आत्मिक प्रभाव मन बुद्धि परे, वास्तविकता से जोड़े नाता ।

सारा विवरण यह दिव्य प्रकृति में, नानाविध जग एक रहा,

मिल जाए जिसको दिव्य दृष्टि, उसने यह मेरा रुप लखा । क्रमशः…