एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’
अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’
श्लोक (५)
श्री भगवानुवाच :-
भगवन कृष्ण बोले अर्जुन, लो विश्व रुप मेरा देखो,
नाना आकृतियों, वर्णों में मेरी, विभूतियों को लेखो ।
सागर समान विस्तृत फैलीं, बिन ओर छोर के अन्तहीन,
दिव्या कृतियाँ सौ-सौ हजार, कोई विशाल कोई महीन
इस विश्वरुप में है अजुन, है रुप हजारों एक जगह,
ये नानाविध वर्णाकृति के, ये अचरज भरे अलौकिक सब ।
देवों दनुजों के रुप विविध, नाना जीवों के रुप विपुल,
आकार प्रकार निराले सब, गुण, वर्ग, वर्ण के भेद सकल ।
कुछ छोटे हैं, कुछ बड़े यहाँ, कुछ क्षीण रहे, कुछ भीमकाय,
कुछ साधारण, कुछ अति दुर्बल, कुछ सबल रहे, कुछ अति विशाल ।
कुछ क्रोधी, कुछ सन्तुष्ट रहे, कुछ अभिमानी, कुछ उदासीन,
कुछ मिलनसार, सक्रिय दयालु, कुछ क्रूर व्यसनरत मतिमलीन ।
कुछ प्रेम युक्त, कुछ कपटी मन, कुछ पालक कुछ संहारक भी,
कुछ सेवारत, कुछ हैं सशस्त्र, कुछ चोर, प्रपंच प्रचारक भी ।
कुछ रुपवान, कुछ रुपहीन, कुछ काले, कुछ पीले गोरे
, कितने ही वर्ग, वर्ण रंग के, बहु भांति न रुप रहे थोरे ।
कुछ पुष्ट वदन, कुछ क्षीण काय, कुछ आकर्षक, कुछ अतिकुरुप,
बेडौल डौल बहु आकृतियाँ, जितने जग के सब विविध रुप ।
इस विश्व रुप में हे अर्जुन, देखो तुम सब कुछ पाओगे,
जितना भी जग है दृश्यमान, उस सबका दर्शन पाओगे ।
श्लोक (६)
हे भारत, देख यहाँ मुझमें, सब आदित्यों का वास रहा,
सुत बारह देख अतिति के तू, आठों वसुओं का वास रहा ।
ग्यारह रुद्रों को देख पार्थ, बसते मुझमें सब देव देख,
अन्यान्य अनेक विचित्र रुप, देखे न सुने, वे सभी देख ।
तेरे मन में जो इच्छा हो, वह सब तू देखेगा मुझमें,
चाहेगा और देखना जो, तत्क्षण वह दीखेगा मुझमें ।
जो कुछ भविष्य के बारे में, तू चाहे, देखेगा अर्जुन,
सम्पूर्ण जगत यह जड़-चेतन, हो रहा दृष्टिगोचर अर्जुन ।
सम्पूर्ण जगत से अलग भाव, कोई जो मन में हो तेरे,
हे अर्जुन देख सकेगा सब, इस विश्व रुप में तू मेरे ।
जिनको न वेद भी देख सके, अल्पायु काल जिनके आगे,
ऐसे अपार, ऐसे विशाल, बहुरुप प्रकट तेरे आगे ।
श्लोक (७)
हो सावधान देखो अर्जुन, जड़-जंगम जगत जीवधारी,
मेरे शरीर के एक अंश में, उभर रही यह कृति सारी ।
इस विश्व रुप के अवयव में, ब्रहाण्ड घूमते हैं अनेक,
जो परे विश्व के रहा पार्थ, वह भी सब अंकित यहाँ देख ।
विश्व रुप के रोमकूप में, सकल सृष्टि का सृजन रहा,
ज्यों असंख्य अंकुरित तृणों का, सुरतरु नीचे वास रहा ।
पृथ्वी के परमाणु तैरते, ज्यों प्रकाश में दिखते हैं,
विश्वरुप में ब्रहाण्डों के पिण्ड, कणों से लगते हैं ।
लेकिन यह क्या, आँखों में तेरी, बनी हुई है उत्कण्ठा,
यह विश्व रुप क्या, तेरी जिज्ञासा को, शान्त नहीं करता?
हाँ चर्मचक्षुओं से इसका देखा जाना न रहा सम्भव,
करता तुझको सामर्थ्यवान, करता तेरा भव से उदभव
श्लोक (८)
तू अपने चर्मचक्षुओं से, मुझको न देखने पायेगा,
इसलिए दे रहा दिव्य दृष्टि, इससे तू सब लख पायेगा ।
मेरा ऐश्वर्य अपार इसे, देखेगा दिव्य दृष्टि पाकर,
मेरी जो योगशक्ति उसको, समझेगा दिव्य दृष्टि पाकर ।
मानवीय आंख तो यह केवल, बाहरी रुपों को देख सके,
हो अन्तर्दृष्टि प्राप्त जिसको, वह आन्तरिक जग को लेख सके ।
यह आँख माँस की बनी हुई, इसकी अपनी सीमित क्षमता,
पर दिव्य दृष्टि दैवीय रही, उससे न रहस्य कोई छिपता ।
करती उद्घाटित सत्य विगत, आगत का भेद न रह पाता,
आत्मिक प्रभाव मन बुद्धि परे, वास्तविकता से जोड़े नाता ।
सारा विवरण यह दिव्य प्रकृति में, नानाविध जग एक रहा,
मिल जाए जिसको दिव्य दृष्टि, उसने यह मेरा रुप लखा । क्रमशः…