दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’
अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’ ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’
श्लोक (३७,३८)
मैं पाण्डुसुतों में अर्जुन हूँ,वासुदेव वृष्णिवंशियों में,
मुनियों में हूँ मैं वेदव्यास, शुक्राचार्य हूँ कवी मनीषियों में ।
मैं नीति विजय आकांक्षी की, मैं गोपनीयता का निस्वन,
मैं दण्ड, दण्ड-विधायकों का, मैं ज्ञान ज्ञानियों का अर्जुन ।
श्लोक (३९,४०)
क्या अधिक कहूँ, सम्पूर्ण सृष्टि, मैं आदि बीज इसका अर्जुन,
ऐसा न चराचर में कोई, कुछ भी रहा जो मेरे बिन ।
हे शत्रु विजेता अर्जुन सुन, मेरी विभूतियाँ हैं अनन्त,
मैंने केवल संक्षिप्त कहा, विस्तार रहा इसका अनन्त ।
श्लोक (४१)
जो जो भी तेजोमय जग में, जो कुछ भी है ऐश्वर्य युक्त,
जितना जो कुछ भी कान्तिवान, जितना जो कुछ भी शक्ति युक्त।
कोई भी वस्तु विलक्षण हो, वह अंश प्रकाश रहा मेरा,
मुझसे उनको उत्पन्न जान, ऊर्जसित अंश जग में मेरा ।
अर्जुन जो शक्तियुक्त प्राणी, गौरव मण्डित जो चारु दिखे,
सुन्दर दीखे या तेजस्वी, साधारण से कुछ अलग दिखे ।
उनमें मैं अधिक प्रगट दीखूँ, हो शौर्य्य कि हो आत्मोत्सर्ग,
प्रतिभा का कोई रुप रहे, जीवन क्षण मेरा काव्य-सर्ग ।
श्लोक (४२)
अथवा न प्रयोजन रख इनसे, विस्तृत विवरण सब अर्थहीन,
केवल इतना तू जान कि जग, मुझसे भासित, मैं रहा लीन ।
लघु अंश मात्र मेरा है जो, सम्पूर्ण जगत धारण करता,
स्थावर-जंगम में मैं ही, हे अर्जुन व्याप्त रहा करता ।
ब्रह्माण्ड सकल आंशिक प्रगटन, जो एक किरण से भासित है,
सारे जीवों का बसा प्राण, उसके अणु कण से साधित है।
वह तेजस लोकातीत रहा, वह परे विश्व के रहा पार्थ,
वह परे देश के रहा सदा, है काल-परे उसका निवास ।
1卐। इति दशमोंऽध्याय: नामे विभूति योग ।卐।