‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 116..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 116 वी कड़ी ..

                        दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’

अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’  ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’

श्लोक   (१९)

श्री भगवानुवाच:-

भगवान कृष्ण ने कहा धनुर्धर, सुनो तुम्हें बतलाता हूँ,

मेरी विभूतियाँ अनगिनती, मैं उन्हें न गिनने पाता हूँ।

यद्यपि वे मेरी रहीं, किन्तु क्या अपने रोम गिने कोई?

कुछ प्रमुख रहीं उनमें अर्जुन, बतलाता हूँ, बस उनको ही ।

 

मैं दिव्य रुप अपने तुमको जो प्रमुख रहे बतलाऊँगा,

मेरा अनंत विस्तार रहा, उसको न आँकने पाऊँगा ।

छेडू यदि मैं चर्चा उसकी, तो अन्त न आने पायेगा,

विस्तार हुआ विस्तारित ही, बस अविरल बढ़ते जायेगा ।

 

कोई न अन्त जिसका अर्जुन, मेरा ऐसा विस्तार रहा,

वे सभी वस्तुएँ हैं विभूति जिनमें मेरा अस्तित्व रहा ।

पर प्रमुख रहीं वे जिनमें बल, विद्या अरु तेज निहित मेरा,

ऐश्वर्य, शक्ति अरु कान्ति रही, हो दिव्य भाव जिनमें मेरा ।

 

अर्जुन, हे कौरव श्रेष्ठ सुनो, भगवान कृष्ण ने विहँस कहा,

मेरी विभूतियाँ अनिगिनती, मेरा ऐश्वर्य अनन्त रहा ।

मैं मुख्य रुप से कुछ का ही, वर्णन कर, करता समाधान,

उन सबको जान सके कोई, इस जग में यह संभव न मान ।

श्लोक   (२०)

सम्पूर्ण सृष्टि भासित जिससे, हे गुडाकेश विश्वात्मा हूँ,

मैं जीव मात्र के हृदयों में, बसती है जो, वह आत्मा हूँ।

मैं जीवमात्र का उदगम हूँ, मैं जीव मात्र का मध्य रहा,

मैं अन्त सभी जीवों का हूँ, परमात्मा मैं अभिव्यक्त रहा ।

 

हर प्राणी में आत्म बनकर, जो बसता वह मैं हूँ अर्जुन,

जो अन्तःकरण शरीरगत हैं, वह अन्तस में, उर की धड़कन ।

जो बाहृय भाग आवरण तन का, वह है मेरा ही उपादान,

ऊपर नीचे भीतर-बाहर, मैं रहा पार्थ, नभ के समान ।

 

सारा संसार सजीव वस्तु, सम्बद्ध परस्पर सभी रहे,

व्यापक समस्वरता में गुँथकर, परमात्मा तत्व में एक रहे ।

सब सधे हुए जिसके बल पर, वह परमात्मा मैं हूँअर्जुन,

सबके हृदयों में बैठा मैं, संचालित करता जग-जीवन ।

 

मैं सृजन करूँ जग को पालूँ, मैं ही जग का सन्हार करूँ,

मैं आदि बनूँ, मैं मध्य बनूँ, मैं समाहार का अन्त बनूँ ।

कहते हैं जिसको परा प्रकृति, अथवा क्षेत्रज्ञ कहा जाता,

वह अंश रुप परमात्मा है, मुझसे न अलग वह हो पाता।

श्लोक   (२१)

मैं बारह अदिति सुतों में से, हूँ विष्णु रुप परमेश्वर का,

जाज्वल्यमान जो ज्योतिपुंज, उनमें स्वरुप मैं दिनकर का।

मैं मरुदगणों में हे अर्जुन, उनका सर्वेश्वर हूँ मरीचि,

अमृतवर्षी मैं शशिनभ का, नभ के समस्त नक्षत्र बीच ।

 

हर वस्तु वहाँ भगवान रहे, पर उनका है आरोही क्रम,

उनमें प्रधानता से दमके, जिनका जितना उजला जीवन ।

भौतिक तत्वों की तुलना में, जीवन में वे ज्यादा दमके,

जीवन के बीच चेतना में, वे और अधिक उभरे गमके ।

श्लोक   (२२)

सन्तों ऋषियों में अधिक तेज, होता है मेरा व्यक्त पार्थ,

जो जितना तेजस्वी होता, वह होता मेरे अधिक पास ।

मैं वेदों में हूँ सामवेद, सुरगण में मैं ही सुरपति हूँ,

मन हूँ मैं सभी इन्द्रियों में, जीवों में पार्थ चेतना हूँ। क्रमशः…