दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’
अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’ ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’
श्लोक (११)
भक्तों पर करूँ अनुग्रह मैं, उनके हृदयों में बस जाता,
अज्ञान जनित मन का सब तम, मेरे बसने से हट जाता ।
प्रज्जवलित ज्ञान का दीप करूँ, अन्तर्तम भासित हो जाए,
अज्ञान तिमिर छाया मन का, जल जाए या फिर मिट जाए।
मैं आत्मभाव में बस उनके, मन का छाया भ्रम दूर करूँ,
जो अन्धकार हो गया सघन, बनकर दीपक मैं उसे हरूँ ।
अपने भक्तों पर करूँ कृपा, भासित कर उनका उर-अन्तर,
उपलब्ध कराऊँ दिव्य बोध, अज्ञान जनित तम को हरकर ।
जागा हो भक्ति भाव मन में, अज्ञान दूर हो जाता है,
होता है उदय ज्ञान-रवि का, परमात्म तत्व भर आता है।
हो जाता भक्ति प्रेम संगम, हो जाता ब्रह्म स्वरुप व्यक्ति,
करुणा प्रभु की निर्मल करती, सार्थक होती है अटल भक्ति ।
श्लोक (१२)
अर्जुन उवाच:-
हो गए मनोरथ पूर्ण सभी, हो गई दृष्टि निर्मल मेरी,
जीवन को मर्म खुला मुझपर, भासित मन की कारा मेरी
रवि-वचन-निकर से दूर हुआ, मेरे अन्तर का अन्धकार,
हे केशव देख रहा हूँ मैं, साकार हुआ है निराकार ।
सब भूतों के विश्रान्ति भवन, सब जीवों के पालनकर्ता,
हैं ब्रम्हा, विष्णु, महेश आप, अपने भक्तों के दुखहर्ता ।
माया के ऊपर भाव दिव्य, व्यापे न आपको जन्म धर्म,
कालों के परे नियन्ता को, क्या बन्धकारी रहे कर्म?
अर्जुन ने कहा कि हे भगवान, परब्रह्म आप हैं, परमधाम,
हैं पावन परम तत्व ईश्वर, हैं पुरुष सनातन पूर्णकाम ।
हैं दिव्य आप, हैं चिन्मय प्रभु, देवों के भी हैं आदिदेव,
हैं आप अजन्मा, प्रभु अकाम, अग जग में व्यापक एकमेव ।
श्लोक (१३)
देवहिर्ष देव नारद गाते, गाते हैं गान असित, देवल,
गाते हैं वेद व्यास ऋषिगण, सुन रहा आपसे मैं केवल ।
कर कृपा आपने हे भगवान, अपने स्वरुप को समझाया,
थे पुण्य उदित मेरे भगवन, भगवत प्रसाद मैंने पाया ।
सब रिषियों ने गुणगान किया, केशव तुमने भी बतलाया,
हर चित्र सामने आँखों के, मेरे साकार उतर आया ।
रिषियों ने प्रकट किया जिसको, मैं वहीं सत्य दुहराता हूँ,
यह रहा रहस्य से भरा हुआ, अनुभव करता खो जाता हूँ।
श्लोक (१४)
मेरे प्रतिवचन आपके प्रभु, हैं सत्य सभी मैं मान रहा,
हृदयंगम कर उन वचनों को, उनमें प्रभु मैं अवगाह रहा ।
ऐसा स्वरुप अद्भुत भगवन्, कोई क्या इसको जान सके,
इसको न जानते हैं सुरगण, इसको न असुर अनुमान सके ।
गोतीत विषय प्रत्यक्ष लखें, देवों में रहती यह क्षमता,
दानव में अतुलित शक्ति रहे, जो माया रुप विविध धरता ।
पर देव दनुज कोई भी हो, पा सके तुम्हारा पार नहीं,
क्या शक्ति रही, क्या युक्ति रही, अचरज में डूबे रहें सभी । क्रमशः…