‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 106 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 106वी कड़ी ..

                        नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’

अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’

श्लोक  (२०,२१)

वेदोक्त कर्मकाण्डी पण्डित, वे सोमपान करने वाले,

निष्पाप स्वर्ग की प्राप्ति हेतु,कर यजन मुझे भजने वाले ।

वे यज्ञ-देव के आराधक, मुझको परोक्ष में पूज रहे,

पुण्यात्मा स्वर्ग लोक पाकर, सुख देव लोक के भोग रहे ।

 

स्वर्गीय विषय-सुख भोगों से, संचित पुण्यों का क्षय होता,

चुक जाते जिस दिन पुण्य सभी, फिर मृत्यु लोक में आ गिरता ।

इस तरह प्राप्त क्षण भंगुर सुख, जो कर्मकाण्ड से वे पाते,

हो जाता है जिस दिन पूरा, वे फिर भव बन्धन में आते ।

 

तीनों वेदों के ज्ञाताजन, करते पापों का प्रच्छालन,

करते हैं पान सोमरस का, धार्मिक विधियों का कर पालन ।

सुख उन्हें स्वर्ग का मिलता है, करते जब वे स्वर्गारोहण,

पर नहीं कामनाओं से होता विरत कभी भी उनका मन ।

 

वह अहंकार का केन्द्र रहा, जो उनके कार्य चलाता है,

अज्ञान भरा उनके मन का, उनसे न दूर हो पाता है ।

मिल पाता उन्हें वरेण्य नहीं, जीवन का सच्चा लक्ष्य पार्थ,

वे दूर-दूर होते जाते, हटता जाता उनसे परार्थ ।

 

यज्ञों द्वारा मेरी उपासना, करके मुझे मनाते हैं,

करते हैं विनय स्वर्ग-सुख की, वे इन्द्रलोक पा जाते हैं ।

उपलब्ध उन्हें सुख-भोग रहे, वे रहे काम कामा अर्जुन,

सुख भोग मिला पर, और और को, रहे ललचता उनका मन ।

 

प्रतिफल में स्वर्ग चाहते वे, साधन कर उसको पा जाते,

रहता है मर्त्य भाव जीवित, वे लौट मर्त्य में आ जाते ।

आत्मा का रहा स्वभाव दिव्य, वे नहीं देखने पाते हैं,

सुख भोग भरा संसार, अनित्य रहा, जिसमें खो जाते हैं।

 

होता जाता है पुण्य क्षीण, फिर शेष न कुछ रह जाता है,

छिन जाता स्वर्गिक सुख उस क्षण, वह लौट धरा पर आता है।

वेदोक्त धर्म का पालन कर, कर रहे कामना जो सुख की,

इच्छा तो पूरी हो जाती, पर हटती नहीं फाँस दुख की ।

 

अर्जुन उपासना जो सकाम, करते फलश्रुति इतनी उनकी,

यह नहीं कि देव अमृत पीते, होती न मृत्यु संभव उनकी ।

अमरों का लोक रहा उसमें, पुण्यात्मा करते हैं विचरण,

पुण्यों का जब तक कोष रहा, अक्षय रहता उनका जीवन ।

 

हे अर्जुन, धर्म विहित विधि का, पालन कर यज्ञ किया जाता,

होती उनको फल प्राप्ति, स्वर्ग का सुख हर साधक पा जाता।

जो करे कामना यज्ञ करे, उसकी इच्छा होती पूरी,

पर कामाकामी की मुझसे, रहती है बनी सदा दूरी ।

 

वह रहा अभागा सुरतरु के, नीचे जो बन्द रखे झोली,

चल पड़े मांगने भीख, पसारे हाथ, लिए खाली झोली ।

यज्ञों का यजन करें, पाने सुख भोग रहे वे अज्ञानी,

निर्दोष परम आनंद रुप मुझको तजकर बनते ज्ञानी

 

शास्त्रों में स्वर्गलोक का जैसा वर्णन पाया जाता है,

मुझको तजकर उसको पाने, साधक का मन ललचाता है।

भटकाता है उसको मानो फिर फिर चौरासी का घेरा,

सुख क्षणिक हेरता अज्ञानी, उसने कल्याण नहीं हेरा ।

 

है अमरावती राजधानी, अमरत्व जहाँ है सिंहासन,

कोठार जहाँ अमृत का है, ऐरावत जैसा है वाहन ।

भाण्डार सिद्धियों का अक्षय, है कामधेनु के झुण्ड जहाँ,

सुरगण सेवा में रत तत्पर है, कल्पवृक्ष का बाग वहाँ ।

 

गन्धर्व जहाँ करते गायन, रम्भा करती मोहक नर्तन,

उर्वशी सुन्दरी अप्रतिम जो, चंचल कर दे तपसी का मन ।

है चन्द्र जहाँ है, वायु देव, है बज्र इन्द्र के हाथों में,

आमोद-प्रमोद भरा जीवन, सब डूबे हुए विलासों में ।

 

यह स्वर्ग प्राप्त तो हो जाता, पर प्रतिपल ढलता जाता है,

हो जाता शून्य पुण्य जिस क्षण, गिरता नीचे आ जाता है।

ऐश्वर्य न बच रहता उसका, फिर मृत्यु लोक का वास मिले,

फिर उदर गुहा में रहने का, पुनि पुनि उसको अभिशाप मिले।

 

अर्जुन यह वैदिक मार्ग इसे, उलझन से भरा हुआ समझो,

सर्वोच्च साधना करना है तो मत माया भ्रम में उलझो ।

भक्तों की सारी चिन्ताएँ, भगवान स्वयं धारण करता,

करता है उनको भारमुक्त, उनके हित की रक्षा करता ।

 

यदि दिव्य प्रेम पाना चाहो तो सब प्रेमों का त्याग करो,

प्रभु की इच्छा पर सब छोड़ों, केवल प्रभु का अवलम्ब रखो ।

दुख चिन्ता बाधा हर लेती, करुणा उसकी बल देती है,

उद्धार हुआ समझो उसको, जिसको वह अपना लेती है । क्रमशः….