नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’
अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’
श्लोक (6)
सर्वत्र विचरने वाला है ज्यों वायु, भूत भी विचर रहे,
है वायु परम विस्तृत जैसे, वैसे ही भूत महान रहे ।
हर समय, विभिन्न दशाओं में, आधार वायु का गगन रहा,
आकाश रहा मैं वायु समान, जहाँ भूतों का जगत सजा ।
जितना विस्तृत आकाश रहा उसमें उतनी ही भरी हवा,
लगता आकाश अलग उससे, यदि वायु हिला दी गई जरा ।
वैसे आकाश वही रहता, आंदोलित केवल वायु हुई,
‘मुझमें हैं प्राणी’ यही भाव आभासित करता सृष्टि नई ।
होना ना होना भूतों का, यह रहा कल्पना पर निर्भर,
अज्ञान कल्पना उपजाए, वह बसा चले नित नूतन जग ।
ऐश्वर्य योग में हे अर्जुन, अज्ञान हटा जब जागोगे,
अपने को सागर पर उठती तुम एक लहर सा पाओगे ।
तुम ही तुम हो सारे जग में, सर्वत्र तुम्हें यह दीखेगा,
अद्वैत भाव मन की धरती को उमड़ घुमड़कर सींचेगा ।
धारण करता है वायु मगर आकाश न उससे लिप्त रहे,
चाहे बयार बन बहे वायु या भीषण रुप प्रचण्ड रखे ।
मुझमें सब भूत निवास करे, ज्यों नभ में रही प्रचण्ड हवा,
आकाश असीम सर्वव्यापी, जिसमें है वायु तत्व ठहरा ।
जो परिवर्तन से रहित मगर गतिशील शक्तियों को साधे,
परमात्मा तो निर्बन्ध किन्तु वह सभी शक्तियों को बाँधे ।
करता अस्तित्व प्रदान वस्तुओं को पर उनमें रहे नहीं,
जग के अस्तित्वों से हटकर वह रहा पृथक अति दूर कहीं।
यह गहरा अन्तर्ज्ञान, समझना इसे, स्वयं है खो जाना,
ज्यों किसी बूँद का सागर में पड़कर है सागर हो जाना।
ज्यों नित्याकाश रहा उसमें, सब ओर संचरित वायु रहा,
त्यों सकल प्राणियों का मुझमें, जीता हंसता संसार रहा ।
इच्छा से सृष्टि सृजित होती, उसका लालन पालन होता,
पा जाती अन्त एक दिन वह, पर मैं सबसे असंग होता ।
श्लोक (७)
जब आता है कल्पान्त समय, सम्पूर्ण सृष्टि लय हो जाती,
मेरी ही प्राकृत प्रकृति रही, उसमें ही यह सब खो जाती ।
फिर नये कल्प के उद्भव पर, रचता हूँ मैं संसार नया,
मेरी ही शक्ति रही जिससे, फिर सृष्टि बनी, फिर जगत सधा ।
अस्तित्ववान सारा जीवन, कल्पान्त चक्र में समा रहे,
वह चक्र, प्रकृति मेरी अर्जुन, जिसमें जीवन का विलय रहे ।
फिर नये कल्प के उदभव पर, भूतों को पुनः प्रकट करता,
फिर से अस्तित्ववान जीवन, आकार नया धारण करता।
जिस तरह बीज के साथ घास, होती जमीन में लीन पार्थ,
या शरद ऋतु के आने पर, नभ में विलीन घन का विकास ।
या वायु लीन जिस तरह रहे, नीलाम्बर के खालीपन में,
या लहरें जल-तल पर उठतीं, होती विलीन ज्यों जल तल में।
या नींद टूटने पर जैसे, मन में हो लीन स्वप्न मन का,
आने पर महाकल्प अर्जुन, यह विश्व प्रकृति में जा छिपता ।
प्रारंभ सृष्टि का होने पर, मैं पुनः उसे उत्पन्न करूँ,
यह बात बताई शास्त्रों ने, मैं इसी बात की पुष्टि करूँ ।
परमात्मा की जो शक्ति रही, उसको ही प्रकृति कहा जाता,
कल्पादि काल में जगत सकल लयमान प्रकृति में हो जाता ।
सौ वर्ष बीतते ब्रह्मा के तब महासर्ग घटता अर्जुन,
फिर ब्रह्म की रचना होती फिर होने लगता सृष्टि-सृजन । क्रमशः…