अष्टमोऽध्यायः – ‘अक्षर ब्रह्मयोग’
अध्याय आठ – ‘भगवतप्राप्ति योग’ या विश्व के विकास का क्रम और भगवत प्राप्ति “
श्लोक (४)
उत्पत्ति रही माया से सब, कर्ता इसका अव्यक्त रहा,
आकार, रूप जो गढ़ता है, वह अन्य नहीं वह ‘कर्म’ रहा ।
निर्मित होते हैं संस्कार, जीवों के कर्मों के द्वारा,
मिट जाता महा प्रलय में जंग, मिट जाता संस्कार सारा ।
उत्पत्ति-विनाश धर्मवाले, जितने पदार्थ ‘अधिभूत’ रहे,
जो पुरुष हिरण्य मय रहे पार्थ, ‘अधिदैव’ वही हैं कहे गये।
बसता शरीर में, मैं अर्जुन,जो वासुदेव अन्तर्यामी,
‘अधियज्ञ’ कहा जाता मुझको, जीवन पाते जिससे प्राणी ।
मेरी जो अपरा’ प्रकृति रही, उत्पन्न करे जग नाशवान,
प्रतिक्षण होता है जिसका क्षय, मैं ‘क्षर’ हूँ उसमें विद्यमान ।
क्षर भाव शरीर इन्द्रियाँ मन अरु बुद्धि, अहंकार अर्जुन,
अरु भूत रूप विषयों के सब भावित करते जन का जीवन ।
प्रत्यक्ष जीव के आश्रित ये,जो परा प्रकृति की चेतनता,
वह मेरा चेतन अंश रहा, जिसको अधिभूत कहा जाता ।
हे पुरुष श्रेष्ठ मुझसे न भिन्न, ‘अधिदैव’रहा अधि यज्ञ’ रहा,
मैं स्वयं यज्ञ का भोक्ता हूँ, मुझसे न भिन्न ‘अधिभूत’ रहा ।
सब सिरजी गई वस्तुओं का, आधार प्रकृति जो नित नवीन,
दैवीय तत्त्व आधृत रहते, विश्वात्मा पर जो विश्व लीन ।
सब यज्ञों का आधार वही अर्जुन तू श्रेष्ठ देहधारी,
सारी देहों में बसता मैं, फिर भी रहता हूँ अविकारी ।
हूँ ब्रह्म अखण्ड एक लेकिन, वह विविध रूप में भास रहा,
जिसमें न हुआ कुछ परिवर्तन, उस दिव्य शक्ति को ब्रह्म कहा।
वैयक्तिक परमात्मा ईश्वर, सम्पूर्ण भक्ति का पात्र बने,
विश्वात्मा प्रमुख देवता जो, अध्यक्ष विश्व का बना रहे ।
‘अधिभूत’ प्रकृति जो नित बदले, परिवर्तनशील पदार्थ सभी,
‘अधिदैव’ विराट पुरुष ऐसा जो किए समाहित विश्व सभी ।
अरु देहधारियों मध्य श्रेष्ठ अर्जुन, मैं ही ‘अधियज्ञ रहा,
जो जीवात्मा के अन्तस का, अन्तर्यामी प्रभु कहा गया ।
श्लोक (५)
व्यक्तिक आत्मा है जीव एक, मिश्रण नश्वर अविनश्वर का,
जो विविध रूप में ब्रह्म रहा, वह ज्ञान जीव पाने पाता ।
मृत्यु काल के समय ध्यान, आत्मा का जहाँ रहा करता,
वह वहीं पहुँचती है अर्जुन, उसमें न कभी अन्तर पड़ता ।
जो नित भजता रहता मुझको, अरु अन्तकाल में याद करे,
या देहत्याग जब करे जीव मेरा न पार्थ विस्मरण करे ।
उसको स्वभाव मेरा मिलता वह प्राप्त उसी को हो जाता,
इसमें रंचक सन्देह नहीं वह परम धाम मेरा पाता
जो अन्त समय सुधि कर मेरी, तजता है अपने प्राण पार्थ,
शाश्वत स्वरूप मेरा पाता, संशय मत कर तू लेशमात्र ।
एकाग्र चित्त होकर मुझको, जो भजता मुझको पाता है,
अन्तिम क्षण का स्मरण जीव को मुक्ति प्रदान कराता है ।
वह रहा कहाँ, कैसा उसने, अब तक जग में व्यवहार किया,
पर अन्त समय में उसने यदि अपने मुख से प्रभु नाम लिया ।
तो अन्त समय की सुधि उसकी, प्रभु से तादात्म्य कराती है,
कैसी भी हो वह जीवात्मा, शाश्वत स्वरूप पा जाती है ।
श्लोक (६)
कौन्तेय जीव के अन्तस में,जैसा भी भाव रहा करता,
जिसको मन में रखकर प्राणी, तन अपना अन्त समय तजता ।
अनुकूल उसी के भावों के, मिलती है गति सन्देह नहीं,
जो अन्त समय का भाव रहा, वह जीवन भर का भाव सही ।
जैसा जो करता कर्म उसी के, संस्कार अंकित होते,
सत, रज, तामस जैसी प्रवृत्ति, वैसे ही संस्कार जुड़ते ।
गुण, कर्म और सुधि तीनों की,हो रहे एकता अन्त समय,
जो गुण प्रधान होता जिसका, वह भाव जागता अन्त समय ।
परमात्मा आता याद अगर हम सतत चिन्तवन करते हैं,
जिनका है पूर्वाभ्यास सुदृढ़, केवल वे भाव ठहरते हैं ।
इसलिए चिन्तवन निरत पुरुष, अन्तिम क्षण में भी याद करे,
हो अन्तिम घड़ी अप्रत्याशित, पर वह न नाम प्रभु का बिसरे ।
हे कुन्तीनन्दन अन्तिम क्षण, जिस जिस का ध्यान मनुष्य करे,
करके शरीर का त्याग मनुज वह उसी दशा को प्राप्त करे ।
सम्पूर्ण जन्म का जो प्रयत्न अनवरत चला, प्रारब्ध गढ़े,
वह साध सफल होकर रहती अन्तिम क्षण तक जो सतत चले। क्रमशः…