‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 70

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 70 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (३१,३२)

भगवान विष्णु अन्तर्यामी, वे सभी प्राणियों में बसते,

उनमें, मुझमें जो योगीजन, कोई भी भेद नहीं करते ।

मुझको, श्रीपति को समझ एक, करते हैं मेरा भजन सदा,

उनका निवास मुझमें रहता, मैं भी हूँ उनको सुलभ सदा. ।

 

जो जीवमात्र का परम हितू उनका सुख-दुख अपना समझे,

अपनी आत्मा की उपमा से, उनके सुख-दुख का बोध करे ।

वह योगी परमश्रेष्ठ अर्जुन, समता का भाव रखे सब में,

कल्याण हेतु उद्यत रहता, ईर्ष्या न रहे उसके मन में ।

 

जो समझ रहा है विद्यमान, जड़ चेतन में मुझको अर्जुन,

वह रहा महात्मा सर्वोत्तम, मुझमें ही खोया जिसका मन ।

जो कार्य करे वह जीवन में, बस बरत रहा मुझमें मानो,

वह कार्य नहीं कर रहा, भजन, तुम जीवन-मुक्त उसे जानो ।

 

उसके कामों से नहीं कभी भी अहित किसी का हो सकता,

जो प्रभु के लिए हुआ प्रभु का सेवार्पित कर्मों को करता ।

करता वह नहीं निषिद्ध कर्म, उसमें अनर्थ का भाव नहीं,

आसक्ति नहीं, है एक भावना प्रभु की सेवा सभी कहीं ।

 

कैसा भी रहे बाह्य जीवन, अस्तित्व आन्तरिक प्रमुख रहा,

व्यवहृत होता है मनोभाव, चिन्तन से ही व्यक्तित्व बना ।

परमात्मा बसता अन्तस में, कर्मों में वहीं उतरता है,

योगी न कर्म करता अपने, परमेश्वर उनको करता है।

 

वह सभी वस्तुओं में  परमात्मा को अंगीकृत करता है,

सन्देश दिव्य जीवन का देता, प्यार सभी से करता है।

बह रही चेतना ईश्वर की जिससे वह अपने कर्म करे,

जो वस्तु उसे प्रिय, प्रिय जग को, जो अप्रिय अप्रिय जग को समझे।

 

यह साधक नहीं सिद्ध योगी, इसकी न किसी से समता है,

दृष्टान्त नहीं पूरा स्वरूप इसका प्रतिपादित करता है।

इसकी स्थिति है अकथनीय, समता को प्राप्त हुआ योगी,

परमात्मा को जीता जग में जीवात्मा में बंधकर योग ।

श्लोक (३३,३४)

अर्जुन उवाच :-

अर्जुन ने कहा कि मधुसूदन, जिस योग क्रिया को समझाया,

मैं धन्य हुआ प्रभु, दयाभाव, जो मुझे आपने दिखलाया ।

यह नहीं रही व्यावहारिक प्रभु, पद्धति यह मुझे जटिल लगती,

मन चंचल और अस्थिर यह, इस कारण मुझे कठिन लगती।

 

हो कर्मयोग या ज्ञान योग, या भक्ति योग या ध्यान योग,

सब का जो अन्तिम लक्ष्य रहा, वह बन आता समत्व योग ।

इस ‘समता’ को पाने में प्रभु, बाधक है मन की चंचलता,

विक्षेप चित्त में रहे अगर, तो क्या सध सकती है ‘समता’ ।

 

हे कृष्ण बहुत चंचल है मन, यह बस उद्वेग बढ़ाता है,

बलवान बहुत यह मधुसूदन, अपने हठ पर अड़ जाता है।

वश में करना आसान नहीं, यह वायु वेग से भी प्रचण्ड,

वश में हो सकती वायु मगर यह निष्फल करता सब प्रयत्न ।

 

हे कृष्ण कठिन नियमन इसका, इसका स्वभाव मन्थनकारी,

यह बली बहुत अंकुश-प्रहार की निष्फल करे मार सारी ।

दृढ़ रहा कि जैसे तन्तुनाग (गोह), जो विषयों को पकड़े जकड़े,

हे कठिन इसे वश में करना, इसके न घटे रगड़े-झगड़े ।

 

मैं इसे न वश में कर पाता, अतिशय चंचल प्रभु मेरा मन,

हे कृष्ण आपका गुण ऐसा, वश में कर लेते सबका मन ।

मेरे मन को भी अपने वश में, कर लें करूँ विनय भगवन,

यह वायु रोकने जैसा दुष्कर, बना हुआ है मुझको मन । क्रमशः…